जनवरी २००७
हमारा
तन वेदिका है. प्राणों को हम भोजन की आहुति देते हैं. प्राणाग्नि बनी रहे, देह
दर्शनीय रहे, पवित्र रहे इसलिए सात्विक और अल्प आहार ही लेना है. इंद्र हाथ का देव
है, सो कर्म भी ऐसे हों जो भाव को शुद्ध करें. मुख के देव अग्नि हैं, अतः वाणी भी
शुभ हो. अतियों का निवारण ही योग है. योग से मन प्रसन्न रहता है और भीतर ऐसा प्रेम
प्रकटता है जो शरण में ले जाता है. सन्त हमें जगाते हैं और हम जग कर पुनः सो जाते
हैं. हमें संकल्प करना है कि अशुभ से बचे, क्यों कि अशुभ विष है और हमें जीना है. व्यवहार
क्षेत्र में पहले भाव फिर क्रिया होती है पर अध्यात्म क्षेत्र में पहले क्रिया
पवित्र हो तो भाव अपने आप पवित्र होने लगते हैं. श्रवण या पठन क्रिया है पर श्रवण
के बाद मनन फिर निदिध्यासन होता है.
यह तन तो मन्दिर जैसा है । सुन्दर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteराजेन्द्र जी, शकुंतला जी व शास्त्री जी आप सभी का स्वागत व आभार !
ReplyDeleteसत्यम-शिवम-सुंदरम
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