फरवरी २००७
सद्गुरु कहते हैं, ध्यान उत्तम प्रार्थना है. हमारे भीतर ही ऐसा
कुछ है जहाँ पूर्ण विश्राम है. मन तो सागर की लहरों की तरह है अथवा आकाश के बादलों
की तरह, जो आते हैं और चले जाते हैं, और सारे विकार वे भी तो मात्र विचार हैं जिनका
कोई अस्तित्त्व ही नहीं. भय का विचार हमें कैसे जड़ कर देता है, जबकि वह है क्या,
एक कल्पना ही तो ! हम खाली हैं, ठोस तो केवल अस्तित्त्व है जो सदा रहने वाला है,
वास्तव में वही हम हैं, जिसमें से रिसता है प्रेम, करुणा, कृतज्ञता और शांति.
जिसमें से झरता है आनंद. पहले विचार आंदोलित करते रहे हों पर ध्यान के बाद वे
बेजान हो जाते हैं. उन्हें देखना भर है. उनमें स्वयं की शक्ति नहीं है, वे आते हैं
और चले जाते हैं, जिसने तय कर लिया है कि अब से उसके जीवन में जो भी होगा
श्रेष्ठतम ही होगा, उससे कम नहीं, सारा अस्तित्त्व उसके साथ है. ईश्वर श्रेष्ठतम
है और वह हर क्षण हमारे साथ है.
ईश्वर श्रेष्ठतम है और वह हर क्षण हमारे साथ है.....
ReplyDeleteso nice..
बहुत सार्थक चिंतन...
ReplyDeleteराहुल जी व कैलाश जी, स्वागत व आभार !
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