जनवरी २००७
उपवास,
जप, तप, ध्यान, भक्ति आदि शुभ क्रियाएं हैं किन्तु इन्हें करते समय मन का भाव कैसा
है इसका भी ध्यान रखना होगा, यदि मन में अभिमान जगता है तो फल विपरीत हो जाता है.
क्रियाएं स्थूल हैं और उनके करने से प्रशंसा के रूप में उसका स्थूल फल तो हमें मिल
ही जाता है. प्रशंसा से हम अभिमानी हो जाते हैं और शुभ कर्म पुण्य नहीं देता. शुभ
कर्म तो हमारे पूर्व के कर्मों के फल रूप में हमें प्राप्त होते हैं, किन्तु कर्ता
होकर यदि हम ध्यान आदि करते हैं तो यह कर्म बंधन कारी है. कर्मों की निर्जरा
अर्थात कर्मों की समाप्ति धार्मिक कृत्यों से नहीं होती है. आत्मा में स्थित रहकर
जो स्वयं को कर्ता नहीं मानता है, कर्म तो उसके ही कटते हैं. क्रोध, मान, माया,
लोभ, अहंकार का यदि लेशमात्र भी रहे तो हम नीचे ही जाते हैं.
सत्य एवं सार्थक ....!!
ReplyDeleteप्रशंसा से हम अभिमानी हो जाते हैं और शुभ कर्म पुण्य नहीं देता. शुभ कर्म तो हमारे पूर्व के कर्मों के फल रूप में हमें प्राप्त होते हैं, किन्तु कर्ता होकर यदि हम ध्यान आदि करते हैं तो यह कर्म बंधन कारी है.....
ReplyDeleteअनुपमा जी व राहुल जी, स्वागत व आभार !
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