जनवरी २००७
कोई हमारे कार्यों की प्रशंसा करे, निंदा करे या उपेक्षा, हर हाल
में हमें निर्लेप रहना है. हम अपने भीतर स्थित रहें और यह मान लें कि निज ज्ञान की
स्थिति के आधार पर ही लोग जगत में व्यवहार करते हैं. हमें उनके भीतर भी परमात्मा
को ही देखना है और अपने भीतर की सौम्यता को बनाये रखना है. यह जगत उसी की रचना है
और वह निर्दोष है, उसे तो इस जगत से कुछ लेना-देना नहीं है, उसने मात्र संकल्प से
इसे रचा है, जैसे हम स्वप्न में सृष्टि बनाते हैं तो क्या हमारा दोष देखा जाता है
यदि स्वप्न में हमें कोई हानि हो. ऐसे ही यह जगत भी एक लीला है, नाटक है, स्वप्न
है इसमें इतना गम्भीर होने की कोई बात नहीं है. यहाँ सभी कुछ घट रहा है. यहाँ हम
बार-बार सीखते हैं बार-बार भूलते हैं. नित नया सा लगता है यह जगत. हम वर्षों साथ
रहकर भी कितने अजनबी बन जाते हैं एक क्षण में और जिनसे पहली बार मिले हों एक पल
में अपनापन महसूस करने लगते हैं. कितनी अनोखी है यह दुनिया, कितनी विचित्र ! और हम
यहाँ क्या कर रहे हैं ? हमें यहाँ भेजा गया है ताकि हम इस सुंदर जगत का आनन्द ले
सकें और उस आनन्द को जो हमारे भीतर है बाहर लुटाएं.
हम वर्षों साथ रहकर भी कितने अजनबी बन जाते हैं एक क्षण में और जिनसे पहली बार मिले हों एक पल में अपनापन महसूस करने लगते हैं. कितनी अनोखी है यह दुनिया, कितनी विचित्र !
ReplyDeleteमृत्यु और जीवन दो दरवाज़े हैं जीवात्मा एक दरवाज़े से निकल कर दूसरे में प्रवेश करता है। अंतकाल में व्यक्ति जो सोचता है उसी को प्राप्त होता है जो कृष्णभावना अमृत में रहता है वह वैकुण्ठ को जाता है उसके लिए यह अंतिम मृत्यु यानी परान्तकाल साबित होती है। सुन्दर पोस्ट।
ReplyDeleteराहुल जी व वीरू भाई, स्वागत व आभार !
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