जिसके
सिर ऊपर तू साईं सो कैसा दुःख पावे ! ज्ञानी के ऊपर परम की कृपा होती है, उसके
भीतर सहज कृपा होती है. वह सम्पूर्ण निराग्रही होता है. आग्रह खुला अहंकार है.
उसके पास सबसे बड़ा शस्त्र प्रेम होता है, वह वाकचातुर्य नहीं दिखाते प्रेम स्वयं उनके
व्यक्तित्त्व से टपकता है. वह अपेक्षा नहीं रखते, जहाँ अपेक्षा है वह प्रेम शुद्ध
नहीं है. प्रेम लेने की वस्तु है ही नहीं, प्रेम तो देने की वस्तु है. जिस पर
सच्चा प्रेम हो उसका कभी दोष नहीं दीखता. हमारे भीतर तो अपेक्षा वाला प्रेम है, जो
घटता-बढ़ता रहता है. साधक का लक्ष्य वही परम ज्ञान की अवस्था है उसे भी आग्रह छोड़ने
हैं, मुक्त होकर जीना है.
ReplyDeleteसुन्दर महावाक्य /सूक्तियाँ निकलतीं हैं आपकी कलम से।
स्वागत व आभार वीरू भाई !
Deleteसुबह - सुबह आपके ब्लॉग में आना अच्छा लगता है । बोधगम्य प्रस्तुति ।
ReplyDeleteऐसे ही आते रहिये..स्वागत व आभार !
Deleteसच, प्रेम तो देने की वस्तु है.…
ReplyDeleteअभी आपके सारे पोस्ट पढ़ रहा हूँ. विलम्ब के लिए क्षमा मांगता हूँ......