जनवरी २००७
जब भीतर विस्मय जगे या
कर्मों में कुशलता की चाह हो, मन को समता में रखने की कला सीखनी हो तो हम योगमार्ग
के अधिकारी हैं. जब हम सारे दुखों से छूटना चाहते हैं तो योग की शरण में जाने के
योग्य हैं. परम की भक्ति अग्नि की तरह है जो सदा ऊपर की ओर ले जाती है. योग में बाधक
है जड़ता और मन की वृत्तियाँ. विस्मय में जाने से हमें ज्ञान रोकता है, जहाँ निश्चय
होता है वहाँ विस्मय नहीं होता. जो ज्ञान हमें अन्यों से अलग करे, जगत से भेद कराए
वह अधूरा है. हमें अद्वैत तक पहुंचना है, जहाँ दो हैं ही नहीं. मन हमें एक होने से
रोकता है, बुद्धि भेद करना सिखाती है और अहंकार हर क्षण दूसरों से श्रेष्ठ होने का
आभास दिलाता है. ये सभी मन की वृत्तियाँ हैं जिनसे हमने मुक्त होना है, तब भीतर अद्वैत
का अनुभव होगा और जगत के साथ भी हमारा कोई विरोध नहीं रह जायेगा.
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteउत्तम
ReplyDeleteपरम की भक्ति अग्नि की तरह है जो सदा ऊपर की ओर ले जाती है. योग में बाधक है जड़ता और मन की वृत्तियाँ.
ReplyDeleteकुंवर जी व् राहुल जी स्वागत व आभार !
Deleteबहुत सुन्दर यहां सृष्टा और सृष्टि रचना और रचता का अभेदत्व है ,मैं और जो मैं नहीं है अर्थात जगत वह भी आखिर में एक ही में रहता है। क्योंकि मैं आत्मा माया का नौकर हूँ और माया भगवान की नौकरानी है।
ReplyDeleteआत्मा ,माया और परमात्मा तीन तत्व हैं इनमें आत्मा और माया का नियंत्रक परमात्मा है। आत्मा उसकी दिव्य ऊर्जा है सुपीरियर एनर्जी है और माया इन्फीरिअर एनर्जी है। जगत माया का प्रपंच है अर्थात बहिरंगा शक्ति है एक्स्टर्नक्ल एनर्जी है ब्रह्म की। इसे ही मटीरियल एनर्जी या अपरा शक्ति भी कहा।आत्मा अंतरंगा शक्ति है ब्रह्म की। योगमाया ब्रह्म का विलास है।
बहुत बहुत आभार वीरू भाई इस सुंदर तत्व ज्ञान के लिए..
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