फरवरी २००७
कर्म से जन्म होता है, कर्म से मृत्यु होती है. कर्म ही हमें चलाता
है. हमारा मन कल्पना से ही अपने दुःख के लिए दूसरों को दोषी मान लेता है, कभी हम
भाग्य को दोष देते हैं पर कर्म का सिद्धांत कहता है कि हमें इस जन्म में जो भी
परिस्थिति मिली है वह प्रारब्ध कर्मों का फल है. जो नए कर्म हम करते हैं वे भी
संचित कर्मों में जमा हो जाते हैं. आत्मा अकर्ता है जब हम उसमें स्थित हो जाते हैं
तो नये कर्म होते ही नहीं, पुराने भी ज्ञानाग्नि में जल जाते हैं. प्रारब्ध कर्मों
का फल अवश्य मिलता है पर हम उसके भोक्ता नहीं होते. भीतर समरसता बनी रहती है बाहर
चाहे जैसी परिस्थिति हो. कितना अद्भुत है ज्ञान का यह पथ. आत्मा में स्थित होने के
बाद उस परम का भी ज्ञान होता है जिसका यह अंश है. सारा विषाद खो जाता है. तब असली
भक्ति यानि परा भक्ति का उदय होता है. प्रेम प्रकट होता है, ऐसा प्रेम जो सारी
सृष्टि की ओर बहने लगता है. सभी के भीतर तो एक ही सत्ता है, सारा जगत उसी का रचाया
खेल है यह ज्ञात होने पर ही जगत निर्दोष दिखाई देने लगता है.
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