Friday, March 28, 2014

भेद-अभेद का खेल अनूठा

नवम्बर २००५ 
स्वरूप में अभेद है पर संबंध में भेद होगा ही. भक्ति में भेद का अर्थ है मर्यादा, भक्त और भगवान के मध्य भी द्वैत का अर्थ एक मर्यादा है, एक सुव्यवस्था है. जब हम पूजा करते हैं तो भी एक दूरी रहती है. जब हम प्रभु के साथ कोई संबंध बनाते हैं तो भी एक भेद रह जाता है. वह हमारी माँ, पिता, सखा, गुरू कुछ भी हो सकता है, एक भेद तब भी रहता है. गुरु शिष्य के बीच में भी एक भेद रहता है, तभी भक्ति रहती है. जिसकी भक्ति करें वहाँ विश्वास है और भक्त में श्रद्धा है. जिस श्रेष्ठ का हम वरण करें तो उसमें विश्वास हो तथा हममें श्रद्धा हो, यह भी भेद है. वह अंशी है तथा हम अंश हैं, वह गगन सदृश है हम जड़ पृथ्वी हैं. यह जगत ब्रह्म है हम सेवक हैं, यह भेद है. पर जो इस भेद का राज जानता है वह अभेद को पार करके ही आता है.

6 comments:

  1. सुन्दर मनोहर विचार

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  2. अहम् ब्रह्मास्मि । तत्त्वमसि ।

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  3. वह अंशी है तथा हम अंश हैं, वह गगन सदृश है हम जड़ पृथ्वी हैं. यह जगत ब्रह्म है हम सेवक हैं, यह भेद है. पर जो इस भेद का राज जानता है वह अभेद को पार करके ही आता है....

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  4. धीरेन्द् जी, वीरू भाई, शकुंतला जी और राहुल जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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