मार्च २००६
जब हम बाहर काम करने के
लिए निकलते हैं तो इस बात का अनुभव होता है कि किसी भी संस्था में सभी व्यक्ति काम
के लिए नहीं होते, कुछ तो केवल शोभा के लिए होते हैं, काम करने वाले तो कम ही होते
हैं, लेकिन वे दो-चार लोग ही पर्याप्त होते हैं. एक भी यदि चलना शुरू कर दे बिना
इस बात की चिंता किये की कोई पीछे आ रहा है या नहीं, तो उतना ही पर्याप्त होगा.
लक्ष्य यदि उच्च हो तो साधनों की कमी नहीं रहती प्रकृति भी सहायक हो जाती है. हम
कई बार लोकमत के डर से आगे नहीं बढ़ते, कई अच्छे विचार मन में ही रह जाते हैं, शंकाग्रस्त
हो जाते हैं. हम अपने भीतर का प्रेम व्यक्त नहीं करते इस डर से कि कहीं गलत न समझ
लिए जाएँ. यह सब तभी तक होता है जब तक हमें अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं हुआ. ज्ञानी
को कोई डर नहीं होता, उसकी निडरता में चेतनता है, वह सभी का सम्मान करते हुए अपना
कार्य करता जाता है. वह सहज होकर भीतर-बाहर एक सा व्यवहार करता है. ज्ञानी को कहीं
जाना नहीं है, उसे कुछ करना नहीं है, कुछ पाना नहीं, वह कृत-कृत्य हो चुका है. ऐसा
व्यक्ति ही सही मायनों में लोकसंग्रह कर सकता है. क्यों कि उसे न मान की इच्छा है
न अपमान का भय है. ऐसे ही ज्ञान में सन्त हमें ले जाना चाहते हैं, सत्संग, साधना
और सेवा की त्रिपुटी के माध्यम से.
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (30.05.2014) को "समय का महत्व " (चर्चा अंक-1628)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
ReplyDeleteराजेन्द्र जी, स्वागत व बहुत बहुत आभार !
Deleteसत्संगति की महिमा भारी आओ हम इसको अपनायें ....
ReplyDeleteऐसे ज्ञानी ही टिक पाते हैं...
ReplyDeleteबढ़िया बात कही आपने , पूरी तरह सहमत , सुंदर लेख आदरणीय धन्यवाद !
ReplyDeleteI.A.S.I.H - ब्लॉग ( हिंदी में समस्त प्रकार की जानकारियाँ )
शकुंतला जी, वाणभट्ट जी, तथा आशीष जी आप सभी का स्वागत व आभार !
ReplyDeleteबहुत सुंदर। आज के बाज़ार वाद से ग्रस्त बाबा ये कहां जानते समझते हैं।
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