फरवरी २००६
अज्ञान दशा
में आत्मा तथा शरीर आपस में एकमेक होकर रहते हैं, जिससे तीसरा पदार्थ अहंकार
उत्पन्न होता है, राग-द्वेष व मोह इसी अहंकार की सन्ताने हैं. ज्ञान दशा में दोनों
पृथक रहते हैं, अलग-अलग प्रतीत होते हैं तब अहंकार का स्थान प्रज्ञा ले लेती है.
प्रेम, शांति, आनन्द का अनुभव होता है जो प्रज्ञा का परिणाम हैं. तब हमारी दृष्टि
में कोई छोटा-बड़ा नहीं होता, प्रेम में सब समान होते हैं, प्रेम तभी टिकता है जब
हम स्वयं को विशेष नहीं मानते, अहंकार ही भेद बुद्धि उत्पन्न करता है, तब जगत से
हमारा सम्बन्ध नाराजगी का ही रहता है, हम दोष दृष्टि से मुक्त हो ही नहीं पाते. भले
ही कोई कितने शास्त्र पढ़ ले जब तक भीतर आत्मा व देह अलग नहीं प्रतीत होते तब तक
ईश्वर भी हमारी सहायता नहीं कर सकते. सूर्य तो चमक रहा है पर कोई अपनी खिड़की ही
बंद रखे तो प्रकाश कहाँ से मिलेगा.
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