Wednesday, May 28, 2014

तेरे हाथों सौंप दिया सब

मार्च २००६ 
जितना-जितना हम उस परम सत्ता के करीब होते जाते हैं, उससे घनिष्ठ नाता जोड़ते जाते हैं, जो सत्ता कण-कण में व्याप्त है. हम देह की सीमाओं से पार होते जाते हैं. कृत्य का अभिमान नहीं रहता. ज्यादा करने की चाह भी समाप्त हो जाती है. हमारे कर्म तब अपने आप होते प्रतीत होते हैं, वह परमात्मा जैसे हमें अपने हाथों में नचा रहा हो. हम निर्भार होकर जीने लगते हैं. पदार्थों के प्रति भाव भी बदल जाता है, पदार्थ हमारे उपयोग में आयें बस वहीं तक उनका महत्व है, वे हमारे अहंकार को बढ़ाएं तो उनका त्यागना ही उचित है. भीतर एक सहजता का जन्म होता है. यह कितना अद्भुत अनुभव है. एक अनोखी शांति और स्थिरता भीतर बनी रहती है. हम उस स्रोत से जुड़ जाते हैं जहाँ से आए हैं.

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