मार्च २००६
अज्ञान
दशा में किये गये सारे कर्म बंधनकारी हैं. हमारे कर्मों की गठरी जितनी छोटी होगी
मुक्ति उतनी ही जल्दी मिलेगी, ज्ञान मिलने के बाद यह तो तय है कि हमारी गठरी बढ़ती
नहीं है, घटती जाती है, तब हमारा अहंकार जो पहले सजीव था, निर्जीव हो जाता है, हम
संसार में सभी कुछ करते हैं पर कर्ता भाव नहीं रहता. उसी दशा में सच्चा पुरुषार्थ
होता है. मुक्ति के बिना भक्ति भी सम्भव नहीं. हम जानते हैं, मृत्यु निश्चित है, और
यह भी कि ऊपर-ऊपर से भेद भले ही हो मूलतः हम एक हैं, सभी के भीतर एक ही चेतन सत्ता
व्याप्त है, हम इसी प्रकृति के अंश हैं, जो अपना तादात्मय प्रकृति के साथ करता है उसे दोषों का भागी होना
ही पड़ेगा किन्तु जो स्वयं को चेतना जानता है वह मुक्त है, आकाश की तरह, हवा की
तरह, उसमें कोई भी अभाव नहीं रहता, वह नित्य है, सदा है, आनन्द रूप है.
बोध - गम्य सुन्दर आलेख ।
ReplyDeleteबहुत ही गहन जीवन दर्शन..सुंदर।।।
ReplyDeleteशकुंतला जी व अंकुर जी, स्वागत व आभार !
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