अप्रैल २००६
गुण,
प्रकृति, काल, कर्म, जगत से परे हमें अपने जीवन को पवित्र बनाना है. भोर में उठकर
पहला विचार मांगलिक हो, रात्रि में सोने से पूर्व स्थित हो सहज हो सोएँ. इस जगत
में जहाँ हर क्षण सब कुछ बदल रहा है, जहाँ हमें कितने प्रभावों का सामना करना पड़ता
है. कभी-कभी शोक के क्षण जो बना माँगे ही हमें मिलते रहते हैं क्या वे पूर्व कृत्यों का फल नहीं हैं ? हमारी
प्रकृति कैसी है, सात्विक, राजसिक अथवा तामसिक, इस पर भी कर्म निर्भर करते हैं,
जिस गुण की प्रधानता हो वैसा ही स्वभाव हम धर लेते हैं, जिस वातावरण में हम रहते
हैं पूर्व संस्कारों के अनुसार वही भाव दशा हमारे मन की हो जाती है. लेकिन हमें इन
सारे प्रभावों से पार जाना है, अपने स्वभाव में लौटना है. प्रेम करना हमारा स्वभाव
है, आनन्द हमारा स्वभाव है ! जब हमें किसी वस्तु का अभाव खटके तो भी हम स्वभाव से
हट गये हैं. स्वभाव में तो पूर्णता है, वहाँ कोई कमी है ही नहीं. तो हमें प्रतिपल
इस बात का ध्यान रखना होगा, कि अंतःकरण कैसा है, हम स्वभाव में हैं या नहीं, सुख तब
कहीं खोजना नहीं पड़ेगा, परमात्मा स्वयं उसे लेकर आएगा.
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