जनवरी २००६
मन की धारा यदि भीतर की
ओर मुड़ जाये तो राधा बन जाती है इसी तरह मन की हजारों वृत्तियाँ गोपियाँ क्यों
नहीं बन सकतीं, हमारी ‘आत्मा’ ही वह कृष्ण है जिन्हें रिझाना है. जीवन का कोई
भरोसा नहीं है, श्वास रहते-रहते उस तक जाना है, जाना है, कहना भी ठीक नहीं, वह तो
सहज प्राप्य है. मध्य में जो आवरण है उसे हटाना है. संसार से सुख पाने की वासना का
त्याग करना है, तभी सहज प्राप्त सुख दीखने लगेगा. एक ही निश्चय रहे तो सारी ऊर्जा
उस एक की तरफ बहेगी. एक ही व्रत हो और एक ही लक्ष्य, भीतर के प्रकाश को बाहर
फैलाना. जिसके आने पर जीवन में बसंत छा जाता है. सद्विचारों के पुष्प खिल जाते हैं
और प्रीत की मंद बयार बहने लगती है. जैसे वसंत में दिन-रात समान हो जाते हैं, वैसे
ही भीतर हानि-लाभ समान ही हो जाते हैं.
संसार से सुख पाने की वासना का त्याग करना है, तभी सहज प्राप्त सुख दीखने लगेगा. एक ही निश्चय रहे तो सारी ऊर्जा उस एक की तरफ बहेगी...
ReplyDeleteराहुल जी, स्वागत व आभार !
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