फरवरी २००६
मिथ्या
पुरुषार्थ कर्मों को बाँधने वाला है, वास्तविक पुरुषार्थ कर्मों से हमें छुड़ाता
है. आनन्द का प्रदाता है, और यह तब होता है जब हम स्वयं को जान लेते हैं. तब बाहर
से सारे कार्य करते हुए भी हम भीतर से विरक्त ही रहते हैं. कर्तृत्व व भोक्तृत्व
तब शेष नहीं रहता. बाहर हम जो भी कर्म करते हैं वे तो फल हैं, भीतर जो भाव बनते हैं,
वे ही बाँधते हैं. हमारे भीतर के भाव ही भावी को जन्म देते हैं. आत्मा में जो
स्थित रहता है, उसके जीवन में जो भी घटता है वह सहज ही स्वीकार्य हो जाता है. उसके
भीतर कर्मों की होली जलती है और बाहर प्रेम का रंग चढ़ता है.
हमारे भीतर के भाव ही भावी को जन्म देते हैं. आत्मा में जो स्थित रहता है, उसके जीवन में जो भी घटता है वह सहज ही स्वीकार्य हो जाता है.....
ReplyDeleteमानव जब देह छोड-कर जाता है तो उसके साथ , मात्र उसके कर्म ही जाते हैं ।
ReplyDeleteसुन्दर चिंतन
ReplyDeleteआभार
राहुल जी, शकुंतला जी व राकेश जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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