Monday, May 12, 2014

सहज हुए सब कर्म करें

फरवरी २००६ 
मिथ्या पुरुषार्थ कर्मों को बाँधने वाला है, वास्तविक पुरुषार्थ कर्मों से हमें छुड़ाता है. आनन्द का प्रदाता है, और यह तब होता है जब हम स्वयं को जान लेते हैं. तब बाहर से सारे कार्य करते हुए भी हम भीतर से विरक्त ही रहते हैं. कर्तृत्व व भोक्तृत्व तब शेष नहीं रहता. बाहर हम जो भी कर्म करते हैं वे तो फल हैं, भीतर जो भाव बनते हैं, वे ही बाँधते हैं. हमारे भीतर के भाव ही भावी को जन्म देते हैं. आत्मा में जो स्थित रहता है, उसके जीवन में जो भी घटता है वह सहज ही स्वीकार्य हो जाता है. उसके भीतर कर्मों की होली जलती है और बाहर प्रेम का रंग चढ़ता है. 

4 comments:

  1. हमारे भीतर के भाव ही भावी को जन्म देते हैं. आत्मा में जो स्थित रहता है, उसके जीवन में जो भी घटता है वह सहज ही स्वीकार्य हो जाता है.....

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  2. मानव जब देह छोड-कर जाता है तो उसके साथ , मात्र उसके कर्म ही जाते हैं ।

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  3. सुन्दर चिंतन

    आभार

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  4. राहुल जी, शकुंतला जी व राकेश जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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