Friday, May 9, 2014

आ लौट के आजा मेरे मन

फरवरी २००६ 
आत्मा की सुगंध में जीना मानो प्रभु के आगे पुष्प भेंट करना है, अपनी आत्मा में रहकर व्यवहार करना ही उसकी सच्ची आराधना है. हमारा मन ‘सैलानी’ मन तो नहीं है, इसका ध्यान रखना होगा. अपने से अभिन्न परमात्मा जो अभी दूर लगता है, दूर है नहीं. हमारे भीतर वही बन्धु रूप में सदा चिदाकाश स्वरूप ही रहता है. कर्मों के बंधन से हमें मुक्त होना है. उसकी उपस्थिति का अनुभव होते ही संचित कर्म नहीं रहते, नये हम बांधते नहीं. भक्ति हमें मुक्ति प्रदान करती है और अहंकार से मुक्ति, भक्ति में लगाती है. 

5 comments:

  1. कर्मों के बंधन से हमें मुक्त होना है. उसकी उपस्थिति का अनुभव होते ही संचित कर्म नहीं रहते, नये हम बांधते नहीं...

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  2. आत्मा दिया है , खुद जलती है और देह को प्रकाशित भी करती है । जब आत्मा देह त्याग-कर चली जाती है तो काया निस्तेज हो जाती है ।आत्मा अमर है , देह नाश - वान है ।

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    1. सत्य और पावन वचन...

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  3. अहंकार से मुक्ति भक्ति से ही मिलती है ... बहुत उत्तम ...

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  4. राहुल जी व दिगम्बर जी, स्वागत व आभार !

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