Tuesday, May 20, 2014

बनें साक्षी निज मन के ही

मार्च २००६ 
मन का यह विचित्र स्वभाव है कि जिस कांटे से बिंधता है बार-बार उसी के पास जाना चाहता है, जैसे किसी के दांत में दर्द हो तो जिह्वा बार-बार उसी जगह जाती है, पर मन को यह बात जितनी जल्दी समझ में आ जाये उतना ही अच्छा है कि वह अपनी प्रकृति का शिकार स्वयं ही होता है, संस्कार गहरे करता जाता है और जाल में फंसता जाता है. हम जितना-जितना प्रतिक्रिया करेंगे, गुण-दोष की परवाह करेंगे, निर्णायक बनेंगे, उतना-उतना ही हमारे कर्म संस्कार गहरे होते जायेंगे, जितना-जितना साक्षी भाव में रहेंगे, उतना ही मुक्तता का अनुभव करेंगे. जो अपने स्वभाव में स्थित ‘होना’ सीख जाता है, जगत उसे प्रभावित नहीं कर पाता. उसे कुछ करके या पाके स्वयं को सिद्ध नहीं करना वह सहज ही संतुष्ट है और निर्लिप्त होकर जगत के खेल देखता है.  


4 comments:

  1. ठोकर खाने की स्वतंत्रता हम सबको है और हम अक्सर इसका उपयोग करते रहते हैं । बोध- गम्य सुन्दर आलेख ।

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    1. सही कहा है शकुंतला जी

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  2. हम जितना-जितना प्रतिक्रिया करेंगे, गुण-दोष की परवाह करेंगे, निर्णायक बनेंगे, उतना-उतना ही हमारे कर्म संस्कार गहरे होते जायेंगे, जितना-जितना साक्षी भाव में रहेंगे, उतना ही मुक्तता का अनुभव करेंगे...

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  3. स्वागत व आभार राहुल जी

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