कृष्ण
रसावतार है, उसका स्मरण होते ही गोपियों का हृदय द्रवित होकर बहने लगता है. उसे वे
प्रेम क्या करें उनका नाम लेते ही भीतर सब कुछ बदलने लगता है. उसका साथ तृप्ति से
भर देता है. भीतर जो पुलक बन कर अंग-प्रत्यंग में स्पन्दित हो रहा है वह अनंत ही
उनकी आराधना का अधिकारी है. वह स्वयं पूर्ण है, पर एकाकी नहीं रहता तभी तो एक से
अनेक हो जाता है, प्रेम का आदान-प्रदान करता है और उनके साथ खेलता है. वह सच्चा
साहिब उन्हें बहुत प्रिय है, गोपियाँ भी क्या किसी से कम हैं, उसका ही एक रूप वे भी
तो हैं.
हे नटवर - नागर आ जाओ ।
ReplyDeleteमन प्यासा है प्यास बुझाओ॥
तभी तो एक से अनेक हो जाता है.....
ReplyDeleteभीतर जो पुलक बन कर अंग-प्रत्यंग में स्पन्दित हो रहा है वह अनंत ही उनकी आराधना का अधिकारी है. वह स्वयं पूर्ण है, पर एकाकी नहीं रहता तभी तो एक से अनेक हो जाता है, प्रेम का आदान-प्रदान करता है और उनके साथ खेलता है....
ReplyDeleteशकुंतला जी, सदा जी व राहुल जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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