मार्च २००६
साधक को
संदेह से अवश्य बचना चाहिए, हर कीमत पर बचना चाहिए, हम संदेह तो जल्दी कर लेते हैं
पर भरोसा करने में बहुत देर लगा देते हैं, जिनको हम प्रेम करते हैं उन्हीं पर जब
हम संदेह करते हैं तो हम स्वयं पर ही अविश्वास कर रहे होते हैं. एक बार जिसे अपने
हृदय का स्वामी बना लिया, तब उस पर संदेह करना अपने हृदय पर संदेह करना ही हुआ. सत्य
को कभी सिद्ध करना ही नहीं होता, जिसे परीक्षा से गुजरना पड़े वह सत्य नहीं है.
सत्य तो स्वयं सिद्ध है और जब यह भीतर प्रकटता है तो सारे भ्रम मिट जाते हैं, एक
सजगता भीतर रहती है जो किसी विवाद को प्रश्रय नहीं देती, तब सहज ही समाधान होने लगता
है. साधक की दृष्टि चेतन पर होती है, तब स्वयं पर भरोसा होने लगता है, सभी के भीतर
उसी सत्य को देख पाने की दृष्टि भी जगती है. जगत पर तब प्रेम ही उमड़ता है, दोष
नहीं दीखता, तब जगत लीला के रूप में खुलता जाता है.
हे विराट हे परम कहॉ हो बहुत निकट हो जाने मन ।
ReplyDeleteसँग तेरा किस विधि पाऊँ मैं मन करता है सतत मनन॥
शकुंतला जी, स्वागत व आभार !
ReplyDeleteविश्वास से लबरेज ..बहुत सुंदर बात अनीता जी ...!!
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