सितम्बर २००७
एक में होना ही स्वर्ग
में होना है. दो बनाना ही नर्क में होना है. हम कहाँ रहें यह सवाल नहीं है, हम
कैसे रहें यह सवाल है. देखने की कला आए तो संसार के भीतर ही परमात्मा मिलेगा. जब
हम नहीं होते तभी परमात्मा होता है. हम तो न जाने कितने-कितने जन्मों में होते आये
हैं, परमात्मा कभी-कभी सद्गुरु की कृपा से ही प्रकट होता है. हमारा मिटना भी उसी
की कृपा से सम्भव है. हम स्वयं मिटना चाहें तब भी खुद को किसी न किसी रूप में बचा
लेते हैं. जीवन को पूरी तरह जानना हो तो उससे ऊपर उठना होगा, उससे पृथक होना होगा.
हम मिटे क्षण भर को और वह प्रकट हुआ. पार्थक्य ही तीर की तरह भीतर एक निशान छोड़
जाता है. अपनी सुगंध छोड़ जाता है, प्रेम छोड़ जाता है. एक होने की इच्छा भी एक परम
शांति का अनुभव कराती है, एक होने की प्रक्रिया भी आनंद देती है.
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