2007
हम ईश्वर का ध्यान तभी तो
कर सकते हैं जब हम उसे पहचान लें, उसकी पहचान तो सद्गुरु ही कराते हैं और एक बार
उसकी पहचान हो जाये तो फिर कभी वह ध्यान से उतरता नहीं है. पहला परिचय खुद का होता
है और तब लगता है जिन्हें हम दो मान रहे थे वे दो थे ही नहीं, एक ही सत्ता थी, वही
आत्मा, वही परमात्मा, वही सद्गुरु वही संसार ! कहीं कोई भेद नहीं, किसी को भी छोड़ना
नहीं ! जो भी सहज प्राप्य हो, हितकर हो, मंगलमय हो, इस जगत के लिए और स्वयं के लिए
शुभ हो वही धारण करने योग्य है. तब सारे संशय भीतर से दूर हो जाते हैं, अंतर्मन खाली
हो जाता है. कोई आग्रह नहीं, कोई चाह भी नहीं, जैसे नन्हा बालक सहज प्रेरणाओं पर
जीता हुआ, अस्तित्व तब माँ हो जाता है, ब्रह्मांड पिता होता है. सारे वृक्ष,
पर्वत, आकाश तब सखा हो जाते हैं और सारे लोग भी एक अनाम बंधन में बंधे अपने ही
लगते हैं !
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति। वसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं।
ReplyDeleteस्वागत व आभार राजेन्द्र जी...आपको भी वसंत पंचमी की शुभकामनायें !
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