अगस्त २००७
मैं निर्गुणिया गुण
नहीं जाना
एक धनी के हाथ बिकाना
मैं कायर मेरा सद्गुरु
सूरा
मैं ओछा मेरा सद्गुरु
पूरा
मैं मूरख सद्गुरु सयाना
एक धनी के हाथ बिकाना
जब तक साधक अपनी सारी
वृत्तियों को इष्ट के चरणों पर विलीन नहीं कर देता तब तक जीवन में विशेषता नहीं
होती. एक बार अन्न का दाना अंधकार में दब जाता है तो हजार गुना होकर वापस आता है.
समर्पण इसी को कहते हैं, जो वह करवाए वही करना. जो वह चाहे उसी में हाँ मिलानी ही
सच्चा समर्पण है. सद्गुरु को जब साधक समर्पित हो जाते हैं तो जीवन से सारा विषाद
चला जाता है. इसके बाद तो केवल भगवान ही भगवान जीवन में रहते हैं ! नया दृष्टिकोण,
नई विचार धारा, नया जीवन मिलता है ! उसे भीतर से रस मिल जाता है और वह एकाग्र हो
जाता है ! यही एकाग्रता फिर सजगता में बदलती है और सजगता ही ध्यान है, सुरत है,
प्रेम है, भक्ति है, ज्ञान है !
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