अक्तूबर २००७
मन के पीछे छिपी चेतना निर्मल है, उसके सामने जो भी आता है
उसको उतनी ही देर के लिए वह ग्रहण करती है उसके बाद वह पुनः पहले की तरह निर्मल हो
जाती है. भीतर की वह चेतना दर्पण है, मन में जो इकठ्ठा हुआ है वह उसमें झलकता है
तो हमें लगता है कि वह चेतना का ही अंग है ! चैतन्य में केवल चित्र झलकता है
और इतने समय से झलक रहा है कि भ्रान्ति हो
जाती है कि यह उसी का भाग है, उसी में है ! मन की छाया लगातार आत्मा पर पडती है,
यही गांठ है, उसे खोलने का उपाय है कि हम कुछ देर के लिए मन से परे हो जाएँ, मन से
मुक्त हो जाएँ. जिस क्षण हम कामना से रहित होते हैं, मन नहीं रहता, उसी क्षण आत्मा
में टिक जाते हैं. यही क्षण मुक्ति का क्षण है और ऐसे क्षण जीवन में कई बार आते
रहे हैं.
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (23.01.2015) को "हम सब एक हैं" (चर्चा अंक-1867)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार राजेन्द्र जी !
Deleteआपने सही कहा है जी .
ReplyDeleteमेरे ब्लोग्स पर आपका स्वागत है .
धन्यवाद.
विजय
" मन के हारे हार है मन के जीते - जीत ।
ReplyDeleteपार- ब्रह्म को पाइये मन की ही परतीत ॥"
कबीर
बिल्कुल सही कहा...चेतना तो निर्मल है..
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