सितम्बर २००७
हम स्वयं ही अपने दुखों
का विस्तार करते हैं. यदि हम संसार को छोड़ने पर राजी हो जाएँ तो मुक्त तो हैं ही.
हमें भ्रम होता है कि जगत ने बाँध रखा है, यदि एक बार तोड़ दें उस काल्पनिक बंधन को
तो हम मुक्त हो सकते हैं. हमें डर लगता है कि संसार को छोड़ दें तो कहाँ जायेंगे.
हमें पकड़े रहने में जगत को प्रयोजन भी क्या है, हम क्या इतने मूल्यवान हैं कि दुःख
हमारी ओर आयें. यह जगत की व्यवस्था हमारे लिए तो नहीं चल रही है, भ्रान्ति है और
यह भ्रान्ति होती है मानव को. मानव शिशु जब जन्मता है कमजोर होता है, माँ-बाप तथा
परिवार के सभी सदस्य उसके आगे-पीछे घूमते हैं. इस बच्चे को सिखाना पड़ता है,
संस्कार देने पड़ते हैं. उस पर सभी ध्यान देते हैं तो उसके भीतर एक भ्रम पैदा हो
जाता है कि वही केंद्र है. सारी व्यवस्था उसके ही लिए रची गयी है, लेकिन बड़े होने
तक यही भ्रान्ति चलती रहती है. यही अहंकार है. अहंकार को छोड़ने पर ही आत्मज्ञान
पाया जा सकता है. जो एक झूठे केंद्र को मानकर चलता है वह भीतर के सच्चे केंद्र को
पाने से वंचित रह जाता है. अहंकार दूसरों पर आधारित है, दूसरों का मत उसका ही
संग्रह हमारी अस्मिता है. दूसरे कभी अच्छा कहते हैं, कभी बुरा, अहंकार वश हम जीते
चले जाते हैं.
बहुत सही कहा आपने ....
ReplyDeleteस्वागत व आभार सदा जी !
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