जो निकट से भी निकट है
उसे जानना कठिन है, पर क्यों कठिन है ? जो हम स्वयं हैं, उससे विस्मृति कैसे हो
गयी? हम स्वप्न में जी रहे हैं. स्वप्न में ही मिथ्या संबंध जोड़ लेते हैं तभी
वास्तविक संबंध को पहचान नहीं पाते, वह संबंध जो हमारा अपने साथ है. इसी को अध्यास
कहते हैं. हम देह को ही मैं मानते हैं क्योंकि हम इसे बाहर से ही देखते हैं, जब हम
इसे भीतर से देखते हैं तत्क्षण आसक्ति छूट जाती है. वह आँख हमें पैदा करनी है
जिससे हम भीतर झाँक सकें, देह का ठीक-ठीक बोध होते ही देह पर पकड़ ढीली होने लगती
है तब दृष्टि चैतन्य की ओर जाती है. सत्य जानने से ही हम मुक्ति का अनुभव करते
हैं. जब देह से दूरी बढ़ने लगती है तो परमात्मा से निकटता होने लगती है.
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