जनवरी २००८
सम्बंध
ही वह दर्पण है जिसमें हम अपना वास्तविक रूप देखते हैं. हमारे संबंधों की नींव में
यदि मोह नहीं है तो उनमें कभी कटुता नहीं आती. भीतर जब एक क्षण के लिए भी विचलन न
हो, सदा समता ही बनी रहे तो मानना चाहिए कि ज्ञान में स्थिति है. वाणी, समय व
शक्ति का अपव्यय न हो तो इन हाथों से कितना कार्य हो सकता है. हमारे कर्मों के
अनेक साक्षी हैं. सूर्य, चन्द्र, अनल, अनिल, आकाश, भूमि, यमराज, हृदय, रात्रि तथा
दिवस, संध्या तथा धर्म ये सभी कर्मों के साक्षी हैं, हमारी आत्मा साक्षी है.
परमात्मा रूपी सद्गुरु का हाथ सदा हमारे सिर पर है, हमारे मस्तिष्क पर उसकी पकड़
है, बुद्धि को वही प्रेरणा देता है, वही सद्विचारों से हमें भर देता है. साधना के
समय जब मन दूसरी ओर चला जाता है तो वही इसे श्वास पर टिकाने में सहायक होता है.
हमारे संबंधों की नींव में यदि मोह नहीं है तो उनमें कभी कटुता नहीं आती. भीतर जब एक क्षण के लिए भी विचलन न हो, सदा समता ही बनी रहे तो मानना चाहिए कि ज्ञान में स्थिति है.
ReplyDeleteअनिता जी ! आपको इस बोध - गम्य रचना के लिए बहुत - बहुत बधाई ।
ReplyDeleteसच में मोह ही संबंधों में खटास पैदा कर देता है...
ReplyDeleteराहुल जी, शकुंतला जी तथा कैलाश जी , स्वागत व आभार !
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