१७ जुलाई २०१७
हम जो भी करते हैं, सोचते हैं या कहते हैं, वह निन्यानवे प्रतिशत बासी होता है.
हम पुराने को ही दोहराते रहते हैं. सुबह अलार्म सुनकर बिस्तर छोड़ते ही यह
प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है. अभ्यास वश ही पैर चप्पल तलाशते हैं, फिर अभ्यास वश ही
ब्रश आदि, देह को जिन कामों का अभ्यास हो गया है, वह मशीन की तरह करता जाती है.
फिर कोई विचार उड़ता हुआ सा मन में आ जाता है, उसके प्रति प्रतिक्रिया भी पूर्व के
अनुसार ही होती है. हमारे इर्द-गिर्द जो कुछ भी होता है वह भी तो दोहराता है स्वयं
को. एक चक्र की भांति हम उसमें ऊपर-नीचे होते रहते हैं, कहीं पहुँचते नहीं. कुछ नया
हो तभी मानव बुद्धि की सार्थकता है. प्रतिदिन या फिर प्रतिपल नया होने के लिए प्रकृति
को क्या कुछ विशेष करना पड़ता है, इतना ही तो कि परिवर्तन का वह प्रतिरोध नहीं करती.
जीवन को जिस रूप में वह आता है सहज स्वीकारने से नयापन बना ही रहता है. जब कोई पूर्वाग्रह,
पूर्व मान्यता न हो, अपनी या दूसरों की विशेष इमेज के प्रति कोई राग न हो तब हर पल
कुछ नया भी होगा तो वह सहज स्वीकार्य होगा.
बढ़िया लिखे हैं
ReplyDeleteस्वागत व आभार अरुण जी !
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