११ जुलाई २०१७
साधना का पथिक अपने भीतर सदा ही उस साम्राज्य में रहना चाहता है जहाँ एक रस शान्ति
विराजती है. उसके अंतर से प्रेम की ऊर्जा किसी विशेष वस्तु, व्यक्ति अथवा घटना के
प्रति प्रवाहित नहीं होती, वह निरंतर बहती रहती है जैसे जल से आप्लावित मेघ सहज ही
जलधार बहाते हैं. जिस लोक में वह विचरना चाहता है, वह अग्नि सा पावन भी है और
हिमशिखरों के समान शीतल भी. वहाँ तृप्ति की श्वास ही ली जा सकती है. जब किसी के
भीतर इतनी सात्विक ऊर्जा भर जाये तो वह सहज ही श्रम करने का इच्छुक होगा, इस श्रम
में कोई थकावट नहीं होगी, वह सहज होगा जैसे प्रकृति में सब काम सहज हो रहे हैं,
क्योंकि प्रकृति सदा ही उस शांति से जुडी है. सेवा का फूल ऐसी ही भूमि में खिलता
है.
सुख - प्रबोधक ।
ReplyDeleteस्वागत व आभार अमृता जी !
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