जनवरी २००६
कभी–कभी
ऐसा होता है कि उत्साह और प्रेम से भरे हम किसी से मिलने जाते हैं और जब लौटते हैं
तो लगता है कहीं कुछ खो गया है, जैसे ऊर्जा निचोड़ ली गयी है. इसके कारण में पड़ने
से तो अच्छा है अपने मन को देखें, कहीं वह अहंकार का शिकार तो नहीं हो गया था,
कहीं भेद भरा वर्तन तो नहीं किया, कहीं लोभ तो नहीं जगा जिसकी पूर्ति में बाधा आई
हो और मन बुझ गया हो. कहीं वाणी का दोष तो नहीं हुआ, मौन से बढकर सम्प्रेष्ण का
कोई साधन नहीं है पर मौन को त्याग हम वाणी का आश्रय लेते हैं, न कहने योग्य भी कह
जाते हैं. अपनी ऊर्जा स्वयं ही गंवाते हैं, जो चुकता है वह अहंकार ही है, जिसे
पीड़ा होती है वह भी अहंकार था, ‘स्वयं’ तो ऊर्जा का अनंत भंडार है, ‘स्वयं’ तो
प्रेम ही देना जानता है, ‘स्वयं’ तो सदा एक सा है, सदा एक सा था, एक सा रहेगा...मौन
की तरह...
हाँ! बहुत बार ऐसा भी होता है कि हम खुद को ऊर्जा से भरपूर भी पाते हैं..
ReplyDeleteतब हम स्वयं में रहते हैं..आभार !
Deleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन विश्व हास्य दिवस - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार !
DeleteVery true.Impressed :)
ReplyDelete‘स्वयं’ तो ऊर्जा का अनंत भंडार है, ‘स्वयं’ तो प्रेम ही देना जानता है, ‘स्वयं’ तो सदा एक सा है, सदा एक सा था, एक सा रहेगा...मौन की तरह...
ReplyDeleteपरमेश्वरी जी व राहुल जी, स्वागत व आभार !
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