Monday, November 29, 2021

संशयात्मा विनश्यति

संशय आत्मा के पतन का सबसे बड़ा कारण है। स्वयं पर संशय हमें हमारी पूर्ण क्षमता से परिचित ही नहीं होने देता। हरेक के भीतर परमात्मा समान रूप से विराजमान है, अब यह उस पर निर्भर करता है कि वह अपने मन को एक चम्मच जितना बनाए या एक विशाल सागर जितना। हम अपनी सजगता और विश्वास के द्वारा ही मन की अज्ञात शक्तियों का पता पा सकते हैं जो भीतर हैं। अपने आस-पास के व्यक्तियों पर संशय और भी हानिकारक है, यह मन पर एक ऐसा आवरण डाल देता है कि हमें उनकी सच्ची और अच्छी बातें भी नज़र नहीं आतीं। हम वास्तव में उन व्यक्तियों से परिचित ही नहीं हो पाते, बल्कि अपने चारों ओर बने एक दायरे में ही क़ैद रह जाते हैं और जीवन प्रतिपल बीतता जाता है। गूरू और शास्त्र पर संशय न केवल हमें जीवन के वास्तविक स्वरूप से वंचित करता है बल्कि उस आनंद से भी जिस पर हर आत्मा का जन्मसिद्ध अधिकार है। 


Sunday, November 28, 2021

माटी में मिल जाए माटी

जैसे गागर माटी की बनी है, टूट जाए तो माटी का कुछ नहीं बिगड़ता, वैसे ही मन आत्मज्योति से उपजा है; मन उदास हो, चिंतित हो तो ज्योति का कुछ नहीं घटता। आत्मा का न कोई आकार है न ही उसमें कभी कोई विकार होता है। मन को सुख और पूर्ण विश्राम पाना हो तो कुछ देर के लिए सब कुछ भुलाकर स्वयं से मिलना सीखना होगा। मन का काम है सोचना, वह कभी एक जगह टिककर रहना नहीं जानता, इसी कारण अपनी ऊर्जा को व्यर्थ ही खर्च करता है, आत्मा ऊर्जा का स्रोत है, उससे जुड़कर वह सहज ही अपनी शक्ति को कई गुणा बढ़ा  सकता है। मन जब यह जान लेता है तो अपने मूल से जुड़ जाता है, गहरी नींद में व ध्यान में मन वहीं पहुँच जाता है। आत्मा के साथ एक होकर वह उसी तरह अमरता का अनुभव करता है जैसे घड़ा मिट्टी में मिलकर उससे एक हो जाता है, जिसका कभी नाश नहीं होता। 


Thursday, November 25, 2021

स्वयं में जो भी टिकना जाने

जैसे जब जरूरत पड़ती है, हम तन का उपयोग करते हैं और जब जरूरत नहीं होती तब शांत होकर बैठ जाते हैं वैसे ही विचार करने की जरूरत हो तभी मन का उपयोग करें तो मनसा कर्म नहीं होंगे. जब तक हम द्रष्टा में सहज रूप से नहीं रहते, तब तक मन की ग्रन्थि बनी रहती है और व्यर्थ ही मन विचार करता है. आत्मा में रहना ही सुख से रहना है, निर्भय और निर्वैर रहना है, निर्विकल्प होकर रहना है ! पर आत्मा में रहना पल भर को ही होता है, जाने कहाँ से मन हावी हो जाता है, मन में जैसे कोई गहरा कुआँ हो जिसमें से विचार निकलते ही आते हैं, कभी इधर के कभी उधर के, कभी काम के कभी व्यर्थ के विचार, जो कभी तन को भी पीड़ित करते हैं मन को भी। आखिर मन चाहता क्या है ?  वह स्वयं को आहत कर कैसे सुखी हो सकता है. वह स्वयं ही नकारात्मक भाव जगाता है फिर बिंधता है, उसे क्यों नहीं समझ में आता ? पर वह तो जड़ है, आत्मा ही चेतन है, यदि आत्मा असजग रहे तो मन इसी तरह करता रहेगा. सजग हमें स्वयं को होना है, हम जो मन से परे हैं. हम नादान बच्चे को घातक हथियार हाथ में लिए देखें तो क्या उसे रोकते नहीं, हम क्यों सो जाते हैं जब मन मनमानी करता है. हमें अपने आप पर भरोसा नहीं, तभी तो ईश्वर को पुकारते हैं. ईश्वर हँसते होंगे, उन्होंने तो हमें निज स्वरूप में ही रचा है. वह कहते होंगे पुकारने से पहले एक नजर खुद पर भी डाल ली होती !


Wednesday, November 24, 2021

वर्तमान में ठहरे मन जब

यदि आत्मा को हम सूर्य समान कहते हैं तो मन की उपमा चंद्रमा से दी जाती है। सूर्य निज प्रकाश से स्वयं को प्रकाशित करता है पर चाँद सूर्य के प्रकाश को ही परावर्तित करता है। आत्मा चैतन्य है, पर मन परावर्तित चेतना से प्रकाशित होता है।यदि मन पर विचारों के घने बादल छाए हों तो चेतना घट जाएगी, मन अति चंचल हो तो चेतना बिखर जाएगी। जब हम नींद में होते हैं तब चेतन मन सो जाता है, हमें अपना भान ही नहीं रहता, नींद में राजा और रंक एक समान हो जाते हैं। जागते हुए भी हम कितनी बार दिवास्वप्न में खो जाते हैं, विचार हमें कहीं से कहीं ले जाते हैं, तब हम स्वयं को भूल ही जाते हैं। जब कोई समान रखकर बाद में याद न आए तो समझना  होगा कि उसे रखते समय मन कहीं घूमने गया था। इसीलिए ध्यान का इतना महत्व है, ध्यान में हम सीखते हैं कि मन को कैसे वर्तमान में रखा जाए, तब आत्मा का पूरा प्रकाश मन से झलकेगा और हम अपने वास्तविक स्वरूप से परिचित हो पाएँगे। 


Tuesday, November 23, 2021

शुभता का जो वरण करे

सृष्टि परमात्मा के संकल्प से उपजी है। यहाँ जो कुछ भी सुंदर है, कल्याणकारी है, किसी के शुभ विचारों का परिणाम है और जो कुछ भी असुंदर है, विनाशकारी है, वह भी किन्हीं  अशुभ संकल्पों का परिणाम है। जीवन में जो भी घटता है, वह किसी न किसी क्षण में भीतर उठे विचारों से ही प्रकट हुआ है। विचारणा सूक्ष्म कर्म है जो अंतत: स्थूल रूप में प्रकट होता है। इसीलिए कहा गया है कि हम आत्मा में रहकर शुभ संकल्प ही करें, मन की यह आदत है कि वह तात्कालिक सुख की लालसा में अपना भला-बुरा नहीं सोचता, वह प्रेय मार्ग का पथिक है। मन एक पुराने ढर्रे पर ही चलता है, जिसपर चलकर उसने पहले कष्ट भी उठाए हों, तब भी वह उस लीक को चुन लेता है। आत्मा में रहने का अर्थ है सदा वर्तमान में रहना, वह श्रेय पथ पर चलने का मार्ग है, अर्थात् श्रेष्ठ को चुनने का मार्ग, जो स्वयं के साथ साथ जगत के लिए भी शुभता ही लाता है।

Sunday, November 21, 2021

सुख-दुःख के जो पार मिलेगा

जीवन सुख-दुःख का मिश्रण है, पर इसको देखने वाला मन यदि इसके पार जाने की कला सीख ले तो जीवन एक खेल बन जाता है। अनादि काल से न जाने कितने लोग इस भूमि पर जन्मे और चले गए। प्रतिक्षण नए सितारों के जन्म हो रहे हैं और कुछ काल के गाल में समा रहे हैं। थोड़ा सा समय और कुछ ऊर्जा हमें मिली है कि अपने भीतर उस स्रोत को पा लें जो सुख-दुःख के पार है। मन यदि स्वयं में संतुष्ट होना सीख जाए तो खुद के परे जाने की हिम्मत कर सकता है, जो मन अभी तृप्त नहीं हुआ,  वह तो संसार को पाने की उधेड़बुन में ही लगा रहेगा। मन यदि रिक्तता का अनुभव करेगा तो उसे भोजन, धन, वस्तुएँ, यश आदि से भरना चाहेगा, इस भरने में वह कभी सफल नहीं हो सकता क्योंकि ख़ाली होना मन का स्वभाव है। उसे शून्य के अतिरिक्त किसी भी वस्तु से भरा नहीं जा सकता। इच्छाओं की पूर्ति के द्वारा न अतीत में न ही भविष्य में कोई सुख-दुःख के पार जा सकता है। ध्यान-साधना के द्वारा मन के इस स्वभाव को जानना है और अपने भीतर आनंद के स्रोत का अनुभव करना है, जो सुख-दुःख दोनों के पार है। 


Tuesday, November 16, 2021

भीतर जब प्रकटेगी सहजता

बुद्धि रूपी मछली जब आत्मा रूपी सागर को छोडकर मन और इन्द्रियों रूपी संकरी नहरों में आ जाती है तो उसका संबंध सागर से छूट जाता है और वह व्याकुल हो उठती है. जब वह पुनः आत्मा के सागर में पहुँच जाती है तो सुखी हो जाती है.... ईश्वर से हमारा संबंध वैसा ही है जैसा बूंद या लहर का सागर से. प्रियजनों के स्नेह में जो आनंद झलकता है वह हमारी आत्मा का ही प्रकाश है. आत्मा का पूर्ण उद्घाटन ही मानव का साध्य है. राग-द्वेष अर्थात आसक्ति व विरक्ति मन के कार्य हैं, स्वास्थ्य-रोग आदि देह के, जो सुख-दुःख के रूप में हमें मिलते हैं. लेकिन वह हमारा वास्तविक परिचय नहीं है. सहजता के प्राकट्य में आनंद है और उसी में हमारी शक्तियों का पूर्ण विकास सम्भव है. 


Thursday, November 11, 2021

थिरता जब मन में आएगी

अध्यात्म का सबसे बड़ा चमत्कार सबसे बड़ी सिद्धि तो यही है कि हम अपने बिखरे हुए मन को समझ  लें, चित्त को देख लें. मानव होने का यही तो लक्षण है कि साधना के द्वारा मन को इतना केंद्रित कर लें कि मन के परे जो शुद्ध, बुद्ध आत्मा है वह उसमें प्रतिबिम्बित हो उठे. ज्ञान के द्वारा उस आत्मा के बारे में  जानना है, फिर योग और ध्यान के द्वारा उसका अपने भीतर अनुभव करना है तथा भक्ति के द्वारा उसका आनंद सबमें बांटना है. योग अतियों का निवारण है, जो मन व तन को जो प्रसन्न रखता है  तथा भीतर ऐसा प्रेम प्रकटाता है, जिससे जीवन सन्तुलित हो. जब तक अपने लिए कुछ पाने  की वासना बनी है मन स्थिर व ख़ाली नहीं हो सकता, जब सारी इच्छाएं पहले ही पूर्ण हो चुकी हों तो कोई चाहे भी क्या ? व्यवहार जगत में दुनियादारी के लिए लेन-देन चलता रहे पर भीतर हर पल यह जाग्रति रहे कि वे आत्मा हैं, जो अपने आप में पूर्ण है ! ज्ञान के वचनों को समझ लेने मात्र से ही कोई बुद्ध नहीं हो जाता, जब तक स्वयं का अनुभव न हो तब तक उधर का ज्ञान व्यर्थ है. शास्त्र जब कुछ कहते हैं तो वे केवल तथ्य की सूचना भर देते हैं, उनकी उद्घोषणा में कोई भावावेश नहीं है. वे हमें हमारी समझ के अनुसार चलने का आग्रह करते हैं।   


Tuesday, November 9, 2021

जीवन का जो मान करे

जीवन हमें उपहार रूप में मिला है। मन, बुद्धि व संस्कार के रूप में अथवा इच्छा, ज्ञान और कर्म  के रूप में हमारे भीतर अस्तित्त्व ने तीन शक्तियाँ प्रदान की हैं। पंच इंद्रियों के माध्यम से हम इस जगत का एक सीमित रूप ही अनुभव कर पाते हैं, जो स्थूल है, किंतु स्वप्न में हम सूक्ष्म जगत की झलक भी पाते हैं। इन दोनों के पार है कारण जगत जो गहरी नींद में जाने पर आत्मा को अनुभव में आता है किंतु मन या बुद्धि को उसकी कोई खबर नहीं मिलती। आत्मा उसके भी पार है जिसका अनुभव केवल ध्यान में किया जा सकता है। संत और शास्त्र इसलिए ध्यान का इतना महत्व बताते हैं। उस अवस्था में हम मन और बुद्धि को अपने अनुकूल व्यवहार करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं अन्यथा वे राग-द्वेष के चलाए चलते हैं और अक्सर अपनी ही हानि कर बैठते हैं। मन में उठने वाला तनाव, चिंता, उदासी अथवा कोई भी नकारात्मक भाव इसी कारण से होता है, जिसका प्रभाव शरीर पर भी पड़ता है। 


Sunday, November 7, 2021

शून्य में ही पूर्ण छिपा है

परमात्मा का एक गुण है वह दिखायी नहीं देता; इसलिए ऐसा लगता है वह  है ही नहीं, किंतु वास्तव में  हर कहीं वही है। उसके बिना कुछ भी नहीं उपजता  है, इस सृष्टि में  हर कतरा उसकी शक्ति से भरा हुआ है,  उससे कभी कुछ छिपा नहीं है। हम देखते हैं कि अक्सर हमारा  चाहा हुआ नहीं घटता है, इससे हम अशांत हो जाते हैं। जब हम परमात्मा की सत्ता को स्वीकार कर लेते हैं तब अंतर में शांति बनी रहती है। अनादि काल से यह दुनिया निज राह पर चल रही है, कुछ ही ऐसे होते हैं जो उसे जानने  का दम भरते हैं जो है ही नहीं, पर जो इस जगत का आधार है। एक वैरागी या योगी के पास बाहर कुछ भी न हो  फिर भी उसके मस्तक पर एक कांति दमकती है और उसका आत्मबल नज़र आता है।जगत में रहते हुए भी यदि चीजों, घटनाओं और व्यक्तियों पर अपनी पकड़ हम छोड़ दें, कहीं कोई अपेक्षा न रखें तो मन उस शून्यता को अनुभव कर सकता है जो वास्तव में पूर्ण है। 


Saturday, November 6, 2021

जीवन में जब उतरे ध्यान

 अध्यात्म के बिना रोजमर्रा की उलझनों में खोया हुआ मानव जीवन के एक महान अनुभव से वंचित रह जाता है. नित्य ही हम जगत की अस्थिरता का अनुभव करते हैं, जिसकी शुरुआत हमारे तन से ही होती है. तन कभी स्वस्थ है कभी अस्वस्थ, आज युवा है तो कल वृद्ध होगा. हमारे देखते-देखते ही कोई न कोई परिचित काल के गाल में समा जाता है. मन की अवस्था भी एक सी नहीं रहती, सुबह जो मन उत्साह से भरा था शाम होते-होते शारीरिक अथवा मानसिक थकान से मुरझा जाता है. वक्त पड़ने पर बुद्धि भी साथ नहीं देती, सदा बाद में स्मरण आता है कि इस प्रश्न का उत्तर यह दिया जा सकता था. हर किसी को कभी न कभी पराजय का मुख देखना पड़ता है. जब बाहर कुछ भी हमारे नियंत्रण में प्रतीत न हो रहा हो तब भी हमारे भीतर एक सत्ता ऐसी है जो कभी बदलती ही नहीं, जो ऊर्जा से भरपूर है, उत्साह, शांति और आनंद जहाँ सहज ही निवास करते हैं. ध्यान के द्वारा ही हम उस अवस्था का अनुभव कर सकते हैं. गहरी नींद की अवस्था में अनजाने में हर कोई वहीँ पहुँच जाता है, इसी लिए नींद के बाद हम तरोताजा अनुभव करते हैं. 

Monday, November 1, 2021

जीवन में जब सत्व जगेगा

नित्य सुख, नित्य ज्ञान, नित्य आनंद मानव की मूलभूत आवश्यकता है, जिसकी पूर्ति सत्संग से होती है. जीवन की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति की भांति सत्संग की ओर भी वही परमात्मा ही ले जाता है, वह उन्हें उनसे ज्यादा जानता है. उनकी उन्नति की उसे उनसे अधिक परवाह है. कुछ ऐसा मानते हैं, वह जिससे प्रसन्न होता है उसे सांसारिक आकर्षणों से वियुक्त करता है और जिससे रुष्ट होता है उनके तमोगुण व रजोगुण की वृद्धि देता है. किंतु सत्य यह है कि जो उसके प्रति कृतज्ञ है, आभारी है, वह सत्व गुणों को धारण करने लगता है।  सात्विक भावों का आदर करने की क्षमता उसे ही मिलती है जिसे सहज ही सत्य और अहिंसा प्रिय है. जगत का अनुभव है कि मृत्यु के क्षण में इस दुनिया में हर कोई पूर्णत: अकेला है, उस समय सिवाय परमात्मा के वह किसी पर भी निर्भर नहीं हो सकता. हरेक की अपनी दुनिया होती है जो उसने स्वयं ही बनाई है पर जब उस दुनिया में परमात्मा अपना अधिकार कर लेते हैं तो वह अकेलापन एकांत में बदल जाता है।