अप्रैल २००६
परमात्मा
सर्व समर्थ है फिर भी जब हम उसे प्रेम करते हैं वह हमारा सखा बनता है. हमें करना
ही क्या है ? मात्र उससे प्रेम ही तो ! और निर्भार हो जाना है, हमारे उर में जो
शांति बन छा जाता है, प्रेम का दरिया बनकर बहने लगता है ! हमारे भीतर का अंधकार
दूर कर देता है. मन में सूक्ष्म वासनाएं छिपी हुई हैं, हम जब उसके सम्मुख होते हैं
तो कुछ देर के लिए लगता है जैसे अंतःकरण पूर्ण निर्मल हो गया है पर पुनः पुनः
संसार का आकर्षण हमें अपनी ओर खींच लेता है, तभी तो बार-बार प्रार्थना की आवश्यकता
है, बार-बार शुभ संकल्पों की जरूरत है. बार-बार सन्त दर्शन की आवश्यकता है. जीवन
में तभी प्रेम का उदय होगा. जैसे एक-एक बूंद को सहेजकर तालाब बनता है वैसे ही एक–एक
क्षण हमें उसकी स्मृति भीतर भरनी है, ताकि वह सदा हमारे द्वारा पूजित होता रहे,
सदा हमारी आराधना का केंद्र रहे. उसका नाम हमारे रोम-रोम में समाँ जाये. उसका
प्रेम हमारे माध्यम से प्रकट होने लगे.