जुलाई २००३
जैसे नरभक्षी पौधे अपनी पकड़ में आये प्राणियों को अपनी डालियों में जकड़ कर उनको
विवश कर देते हैं, वैसे ही राग और द्वेष के दो वृक्ष हमारे भीतर उगे हैं, उनकी
जड़ों, टहनियों ने हमको जकड़ रखा है, हम उन्हीं में उलझे हुए हैं, और छूटने का
प्रयास भी नहीं करते. सुख-दुखके फल हमें इन्हीं वृक्षों से मिलते हैं. सदगुरु आकर
हमने जगाते हैं, उनकी आभा देखकर हमें भी वैसा बनने की प्रेरणा मिलती है. साधक का
राग खो जाता है यदि वह अपना राग ईश्वर में लगा दे, उसे द्वेष नहीं रहता क्योंकि उसके
सिवाय कुछ नजर ही नहीं आता, वह तटस्थ हो जाता है. सच्चा प्रेम तभी अंतर में जगता
है. जो सभी को अपना सा जानता है, वह सभी के कल्याण की ही बात सोचेगा. उसका हृदय
विशाल हो जाता है, छोटी-छोटी बातों से निर्लिप्त होकर वह जगत में रहता है. वह जो भी
करता है पूरे होशोहवास में करता है, ज्ञान पाने का सदा अभिलाषी रहता है. वह
पूर्णकाम होकर जगत में राजा की नाईं विचरता है पर उसमें अहंकार नहीं होता. सदगुरु
व परमात्मा का वरद हस्त सदा उसके सर पर होता है.