Friday, August 31, 2012

भीतर जगता प्रेम अछूता


जुलाई २००३ 
जैसे नरभक्षी पौधे अपनी पकड़ में आये प्राणियों को अपनी डालियों में जकड़ कर उनको विवश कर देते हैं, वैसे ही राग और द्वेष के दो वृक्ष हमारे भीतर उगे हैं, उनकी जड़ों, टहनियों ने हमको जकड़ रखा है, हम उन्हीं में उलझे हुए हैं, और छूटने का प्रयास भी नहीं करते. सुख-दुखके फल हमें इन्हीं वृक्षों से मिलते हैं. सदगुरु आकर हमने जगाते हैं, उनकी आभा देखकर हमें भी वैसा बनने की प्रेरणा मिलती है. साधक का राग खो जाता है यदि वह अपना राग ईश्वर में लगा दे, उसे द्वेष नहीं रहता क्योंकि उसके सिवाय कुछ नजर ही नहीं आता, वह तटस्थ हो जाता है. सच्चा प्रेम तभी अंतर में जगता है. जो सभी को अपना सा जानता है, वह सभी के कल्याण की ही बात सोचेगा. उसका हृदय विशाल हो जाता है, छोटी-छोटी बातों से निर्लिप्त होकर वह जगत में रहता है. वह जो भी करता है पूरे होशोहवास में करता है, ज्ञान पाने का सदा अभिलाषी रहता है. वह पूर्णकाम होकर जगत में राजा की नाईं विचरता है पर उसमें अहंकार नहीं होता. सदगुरु व परमात्मा का वरद हस्त सदा उसके सर पर होता है.  

Thursday, August 30, 2012

आत्मा केन्द्र है


जुलाई २००३ 
सदगुरु हमें अपने सच्चे स्वरूप का परिचय देते हैं और वहाँ तक जाने का रास्ता भी बताते हैं. और एक बार जब उस पथ के यात्री हम बन जाते हैं तो लगता है वास्तविक जीवन अब शुरू हुआ है. तब यह जगत एक खेल प्रतीत होता है. यहाँ सब कुछ बदल रहा है यह स्पष्ट होने लगता है. हमारा अंतः करण ही तब एक मात्र स्थिर प्रतीत होता है, सदा एक सा, हम केन्द्र में स्थित हो जाते हैं. तब संसार के झूले के झकोरे हमें नहीं झुलाते. हम द्रष्टा भाव में आ जाते हैं. यह जगत दृश्यमान है हम उससे पृथक हैं. जैसे जल में नाव जल से पृथक है. कीचड़ में कमल की तरह हम निर्लिप्त हो जाते हैं. सारे कार्य पूर्ववत होते हैं, पर जैसे प्रकृति अपना खेल देख रही होती है. तीनों गुणों के आधीन होकर हम जगत का व्यवहार तो करते हैं पर स्वयं को इससे पृथक देखते हैं, शरीर, इंद्रिय, मन और बुद्धि अपना-अपना कार्य करते हैं, ऐसा स्पष्ट आभास होने लगता है.  

Wednesday, August 29, 2012

कर्म किये जा फल की चिंता मत कर ऐ इंसान


हम जैसा कर्म करते हैं प्रकृति उसका तदनुसार फल देती है. उसके नियम अटल हैं. निष्काम कर्म  भी करें तो भी फल तो मिलने ही वाला है. कामना होने से हमारा सारा ध्यान कर्म की ओर न रहकर फल की ओर भी चला जाता है सो हमारी चेष्टा पूर्ण नहीं होती सो फल भी अधूरा ही मिलता है. चिंतन, मनन ध्यान भी कर्म हैं और निर्धरित कर्त्तव्यों का पालन भी. यदि पहली श्रेणी के कर्म हेतु के लिये किये गए हों, और कर्त्तव्य, मात्र कर्त्तव्य हेतु तो पहले कर्म बांधने वाले होंगे. मन को सात्विक बनाना भी यदि कुछ पाने की इच्छा से हुआ तो मुक्ति दूर ही रहेगी. कर्ता भाव जब तक नहीं छूटता तब तक फल की इच्छा बनी ही रहेगी, यदि कर्म हमारे द्वारा हो रहे हैं, हम नहीं कर रहे हैं तभी हम फल की आशा से बंधेंगे नहीं.  

Tuesday, August 28, 2012

भक्त वही जो कुछ न चाहे


जुलाई २००३ 
भक्ति स्वयं फलरूपा है, अर्थात भक्ति का फल और भक्ति है, अपरा के बाद परा भक्ति ! जीवन मुक्त ही सच्ची भक्ति कर सकता है ऐसी भक्ति जो कुछ चाहती नहीं, सिर्फ देना चाहती है, अपना एकांतिक प्रेम उस प्रभु को, जो एकमात्र प्रेम करने योग्य है, वह सभी के भीतर है, कण-कण में है, अतः भक्त के लिये कोई पराया नहीं रहता. परमात्मा का प्रेम हमारे अंतर में हजार गुना होकर बल्कि अनंत गुना होकर प्रकाशित होता है. हमें उसके प्रेम का अधिकारी बनना है और उसकी सरल, सहज राह है विनम्रता की राह. वैसे तो परमात्म प्रेम सहज प्राप्य है, पर मन इसे देख नहीं पाता, जब शरणागति की भावना उपजती है, अपने अंतर को शांत बनाने की इच्छा बलवती होती है, तो भक्ति प्रकट होती है और आगे का मार्ग सरल हो जाता है. 

परम प्रेम ही मुक्त करेगा


जुलाई २००३ 
परमात्मा अकाल है, अर्थात समय से परे है. उसे जान लें तो मन में जागृत अवस्था में भी सुषुप्ति का अनुभव हो सकता है, तब हम जगत में सभी कर्त्तव्यों का पालन करते हुए भी भीतर शिला की नाईं अडिग रह सकते हैं. उसका ज्ञान होते ही सारा का सारा विषाद न जाने कहाँ चला जाता है. जैसे सूर्य का प्रतिबिम्ब विभिन्न प्रकार के बर्तनों में एक सा नहीं दिखाई देता जिसमें पानी स्थिर है स्वच्छ है, उसमें प्रतिबिम्ब स्पष्ट होगा. जिसमें पानी गंदला है, उसमें स्पष्ट नहीं होगा, जिसमें पानी हिल रहा है वहाँ प्रतिबिम्ब भी टुकड़ों में दिखेगा. वह परमात्मा संतों के हृदय में स्पष्ट दिखता है और हमारे हृदय में स्पष्ट नहीं दिखता. जैसे-जैसे उसकी ओर हृदय जाता है, विकार अपने आप दूर होने लगते हैं. अध्यात्म का यही अर्थ है, यह हमें इतना विशाल बना देता है कि सारा ब्रह्मांड अपना लगता है. ईश्वर के प्रति अनन्य प्रेम ही हमें सारी बुराइयों से बचा लेता है.  

Monday, August 27, 2012

प्रेम गली अति सांकरी


जुलाई २००३ 
चींटी को अगर हिमालय जितना विशाल मिश्री का पहाड़  मिल जाये तो वह उसका कितना अनुभव कर सकती है? उसी तरह उस परमात्मा का बखान हमारी अल्प मति कितना कर सकती है.? वह अनंत है उसे जानने के लिए किये हमारे सारे प्रयत्न विफल हो जाते हैं. उसकी कृपा सदा ही बरस रही है, हमने अहंकार का छाता लगा लिया है जिसके कारण वह हमें छूती ही नहीं. पर जब उसकी कृपा को हम महसूस करते हैं, तब वह हमारे भीतर शक्ति देता है, मोक्ष की इच्छा को जन्म देता है. वह हमारे मन को हर लेता है, वह ज्ञान की कुंजी देता है. उसने हमें अपने समान बनाया है, हमारे भीतर ज्ञान, प्रेम और ऊर्जा का अनंत स्रोत उसने दिया है. नश्वर सम्बन्ध बनाकर हम उस भूले रहते हैं और जीवन समाप्त हो जाता है. रेत की दीवारों पर खड़ा यह जगत हमें सदा खुद से मिलने में बाधा बना रहता है. उसके और खुद के मिलने में कोई अंतर नहीं है. उसके घर का रास्ता खुद से होकर ही जाता है और जब वहाँ से साधक लौटता है तो दो नहीं होते, एक ही रहता है. 

Friday, August 24, 2012

कल कल छल छल बहती वाणी


जुलाई २००३ 
संतों ने यूँ ही नहीं कहा है कि मानव जन्म दुर्लभ है, और उससे भी दुर्लभ है सत्य को जानने की जिज्ञासा. दुःख से मुक्त होना तो सभी चाहते हैं पर सारा दुःख असत्य के कारण है इस सत्य से आँखें चुराए रहते हैं, न तो दुःख दूर होते हैं न सत्य की मीठी छाँव का ही अनुभव कर पाते हैं. जिसे संतों का सत्संग मिलता है उससे बढ़कर भाग्यशाली कौन हो सकता है. अमृत के समान मीठे वचन जिसके अंतः करण को स्वच्छ करते हैं, निरंतर गिरती जलधार की तरह संतों की वाणी कानों से होती हुई मन तक पहुंचती है, मन झोली फैलाये तत्पर रहता है और उन मोतियों को एकत्र करता है. दुःख की आग में जलते हुए मानवों पर उनकी वाणी शीतल फुहार बन कर बरसती है. वे सत्यद्रष्टा हैं और प्रेम तथा करुणा वश वे हम सभी को उसका दर्शन कराना चाहते हैं. वे जीवन को उत्सव बनाने के मार्ग के बारे में सरल शब्दों में बताते हैं. ज्ञान के प्रति, प्रेम के प्रति उनके मन में कितनी ललक है, वही ललक हमारे भीतर उठे, स्वर्ण मृग की तरह व्यर्थ की कामनाएं हमारे जिस मन को अपने पीछे लगाये रहती हैं, वह मन मर्यादा में रहना सीखे.

Thursday, August 23, 2012

तुम्हीं हो बंधु सखा तुम्हीं हो


जुलाई २००३ 
हम छोटे मन से सोचते हैं, जो शरीर तक ही सीमित है अथवा बड़े मन से, जो विशाल है, जिसमें उस परमात्मा का वास है. अनंत तो अनंत में ही समा सकता है, हमारी सोच ही हमें उसके निकट अथवा दूर लाती है. हम यदि उन बातों के बारे में सोचते हैं जो सकारात्मक हैं, प्रशंसनीय हैं, जो हमें उच्चता की ओर ले जाती हैं, जब हम प्रभु पर अटल विश्वास करते हैं तो वह विश्वास ही हमारी रक्षा करता है. वैसे भी जब हम उसकी शरण में होते हैं तो हमें अपनी रंचमात्र भी चिंता नहीं होती. बस हमें अपना सच्चा मन उसे अर्पित करना है, हमारा भीतर-बाहर एक हो, तो हर क्षण उसके सान्निध्य में ही बीतेगा. वह हमारे इतने निकट है कि उतने हम स्वयं भी नहीं हैं. बस एक झीना सा पर्दा हमारे बीच है जिसे हटाने में भी वही हमारी मदद करता है, वही हमें बुद्धियोग प्रदान करता है, वह जो अव्यक्त है पर स्वयं को हमारे भीतर व्यक्त करता है. जो हमारे होने का कारण है, जो हर क्षण हमारी खबर रखता है, वह हमें अनंत आनंद का अनुभव कराता है, जगत अभी है, अभी नहीं, पर वह सदा है.

अमन हुआ जब मन


जुलाई २००३ 
जो हमें रुचता है अर्थात जो वास्तव में हम हैं उसे रुचता है- प्रेम, सत्य, सदाचार, विश्वास और श्रद्धा आदि सदगुण, कहीं से भी मिलें ग्रहण कर लेने चाहिए. इस भौतिक जगत में द्वंद्व हर जगह है, शीत-ग्रीष्म, सुख-दुःख आदि. लेकिन हमारे उस आध्यात्मिक जगत में जहाँ हम वास्तव में रहते हैं, कोई द्वंद्व है ही नहीं. वहाँ समरसता है, तो भेद सिर्फ यहीं है, जब तक देहात्म बुद्धि है तभी तक कोई अच्छा-बुरा प्रतीत होगा. समरसता तभी मिलेगी जब मन स्थिर होगा, ऐसा मन जो सभी का कल्याण चाहता है, जो प्रेम बाँटता है, जो इच्छा रहित है. तीनों गुणों के पार है. जहाँ न मान की इच्छा है न अपमान का भय, जहाँ न लोभ है न ईर्ष्या. जहाँ सत्य ही एकमात्र आश्रय है, जहाँ मद, मोह, आलस्य आदि असुरों का नाश हो चुका है. जहाँ भगवती का निवास है, जहाँ शिव का कैलाश है और कान्हा का वृन्दावन है. ऐसे मन में ही ज्ञान टिकता है. तब हमारा होना मात्र ही पर्याप्त होता है, हमारे मन में संकल्प-विकल्प नहीं उठते, सहज चेष्टा होती है, सहज, स्वतः स्फूर्त कल्याणकारी वचन निकलते हैं, तब हमें परिणाम की चाह तो होती नहीं, अतः कर्मों का बंधन नहीं होता. हमारा मन जो अभी स्वयं को द्रष्टा मानता है तब दृश्य हो जाता है और जो वास्तव में हम हैं, द्रष्टा बनकर सब देखता है, तन-मन में होने वाले छोटे छोटे परिवर्तनों को भी वह देख लेता है, मन तब अमनी भाव में आ जाता है.

Wednesday, August 22, 2012

क्षण क्षण जीना सीखा जिसने


जुलाई २००३ 
हम अपना कितना समय व्यर्थ ही गंवा देते हैं, किन्तु जब तक कार्य कारण सिद्धांत के अंतर्गत रहते है, तो हर कार्य के पीछे एक कारण होता है, उस कारण के पीछे एक और कारण. हमारा इस जगत में होना भी तो एक कारण छिपाए है, लेकिन यह तो माया का जाल है, जो इस जाल से मुक्त हो गया हो, उसे अपने कार्यों, विचारों और शब्दों के पीछे अज्ञात कारणों को खोजने की आवश्यकता नहीं है. वह जो कुछ भी करता है सहज रूप से करता है, उसके पीछे कोई प्रयोजन नहीं होता, उसके कार्य किसी कारण अथवा परिणाम से बंधे नहीं होते. वह क्षण-क्षण जीता है. उसका पिछला जीवन एक तरह से समाप्त हो चुका होता है. अगले क्षण क्या होने वाला है उस ज्ञात नहीं और जो क्षण बीत गया वह उसके लिये रहा नहीं, वह हर क्षण मुक्त है, वह अपनी मौज में है. वह जीवन की असलियत को जान चुका होता है, यह सारा माया का खेल उसके सामने स्पष्ट हो चुका होता है, अब उसे इसमें कोई रस नहीं होता. बस उसका होना ही एक मात्र सत्य बनकर उसे दिखता है. तो क्या वह जड़ वस्तु सम है? नहीं, वह अनुभव करता है, वह समरस है, वह अपने भीतर की दुनिया में संतुष्ट रहता है. वह जिस भाव में रहता है उसे व्यक्त करने के लिये शब्दों में सामर्थ्य नहीं है. वह सभी के भीतर उसी अनंत को देखता है, वह अनंत को पा चुका अब सीमित से कैसे संतुष्ट हो सकता है पर इससे कोई अभिमान उसे नहीं होता, वह अनंत के आगे स्वयं को अणु ही मानता है पर ऐसा अणु जो नित्य है ,शाश्वत है, पूर्ण है.

Tuesday, August 21, 2012

भक्ति में मस्ती है


जुलाई २००३ 
‘अजब राज है इस मुहब्बत के फसाने का, जिसको जितना आता है गाए चला जाता है’ ! वह परमात्मा हर क्षण हमें अपनी ओर खींचता है, वह हमारे मन की सूक्ष्म से सूक्ष्म बात जानता है. वह हमें हमारी ही कल्पना के अनुसार मिलता है, जिस रूप में हम उसका ध्यान करें उसी रूप में वह नजर आता है. कोटि-कोटि ब्रह्मांडों का स्वामी हमारे प्रेम को स्वीकारता है, उसकी महानता का कोई अंत नहीं. वह जीवन देता है, मन-बुद्धि देता है, और स्वयं को भी दे देता है. वह एक ही अनेक होकर विद्यमान है. अद्भुत खेल रचाया है उसने. पर वह कितना सरल है, एक नवजात शिशु सा निष्पाप और सरल. वह हमें भी वैसा ही देखना चाहता है. वह हमसे अपने स्तर पर मिलना चाहता है. वह हमसे प्रेम करता है ! 

Sunday, August 19, 2012

तुलसी ममता राम से


जुलाई २००३ 
तुलसी ममता राम से समता सब संसार ! इस जगत में सम भाव से रहना आ जाये तो राग, द्वेष आदि दुखद विकार मन से नष्ट हो जाते हैं. संसार का चिंतन अंतः करण की मलिनता है और भगवद् चिंतन अंत करण की शुद्धि है, पहले का परिणाम भय, दुःख ही होने वाला है और दूसरे का परिणाम मंगलकारी ही. हमारे भीतर वह परमात्मा मित्र रूप में है, जैसे दो पक्षी एक डाल पर बैठे हों. यह विचार ही हमें आनंद देता है कि वह हमारे निकटस्थ है, एक बार उसे सच्चे दिल से पुकारें तो वह झट अपनी उपस्थिति जताता है, ऐसा रस बरसता है कि हमें उसके अमृत स्वाद का अनुभव होने लगता है. बल्कि वह तो यह भी जानता है कि हम उसे पुकारने वाले हैं, हमारे विचारों को वह हमसे पहले ही जान जाता है. ऐसे रस का पान करने के लिये ही साधना का पथ सदगुरु बताते हैं, ध्यान में हम उसको अपने सम्मुख पाते हैं, उसने हमें गुणात्मक रूप से अपने समान बनाया है. 

Saturday, August 18, 2012

ले चल हमें अनंत की ओर


जुलाई २००३ 
छोटी-छोटी बातों से परेशान होकर जीने के लिये यह जीवन हमें नहीं मिला है, जो इतना अमूल्य है, जिसे पाने के लिये देवता भी लालायित रहते हैं. यह मानव देह हमें उस अनंत का सान्निध्य प्राप्त करने के लिये मिली है. इसी देह में उसे पाने के लिए साधना करनी है. इसे एक मंदिर बनाना है जहाँ परमात्मा विराजमान हों, मन पूजा की थाली बन जाये तथा ज्ञान के पुष्प व दीप जहाँ भीतर–बाहर प्रकाशित व सुगन्धित कर रहे हैं. यह जगत उस जगदीश्वर की सुंदर रचना है, इसमें जो भी जिस क्षण भी जो घट रहा है, वह किसी न किसी कारण वश दिखाई पड़ता है, कार्य-कारण की इस श्रंखला को तोड़ते ही हम मुक्त हैं, जहाँ हम पूर्णतया उसके निर्देशन में कार्य करते हैं, कर्म तब बांधता नहीं, कोई भी घटना हमारे मन पर प्रभाव नहीं डालती. ऐसे प्रेम के राज्य में सदगुरु हमें ले जाने आते हैं, हम सारी उहापोह छोड़कर उनका हाथ थामकर निश्चिन्त होकर जब उनके पीछे चल पड़ते हैं वह हमें मंजिल तक पहुँचा देते हैं.

Friday, August 17, 2012

सदगुरु ज्ञान है


जुलाई २००३ 
जैसे चन्द्रमा की ओर चकोर देखता है एक निष्ठ होकर, उसी तरह साधक ज्ञान की ओर चित्त को लगाता है. ज्ञान सारे धोखे हर लेता है, संसार की पोल खुल जाती है. भक्त वही है जो विभक्त न हो, हम केवल परमात्मा से ही विभक्त नहीं हो सकते, संसार से कितना भी जुड़ें अलग होना ही पड़ेगा. संसार हर पल बदल रहा है. सदगुरु का ज्ञान हमारे भीतर बादल बन कर बरसता है, सभी कुछ स्वच्छ करते हुए अंतरात्मा को भिगोता है, भीतर रस उत्पन्न होता है. अब संसार सत्य प्रतीत नहीं होता है, परमात्मा निकट आ गया है ऐसा प्रतीत होता है. मन रूपी पक्षी तभी पूर्ण शांति का अनुभव कर सकता है जब वह गुरु ज्ञान रूपी दानों को चुगे. परमात्मा रूपी खजाना जब भीतर है तो क्यों मन भिक्षु बन संसार से सुख माँगे, क्यों न उस खजाने को लुटाए.

Thursday, August 16, 2012

चल मन गंगा जमुना तीर


जुलाई २००३ 
हमारे भीतर ही गंगा है और सागर भी, मानसतीर्थ में यदि प्रवेश हो गया तो ही बाहरी तीर्थों पर जाना सफल हुआ मानना चाहिए, तीर्थ दर्शन, व्रत आदि से अंत करण की शुद्धि होती है, तभी भीतर ज्ञान टिकता है. यही ज्ञान हमें परमसत्ता से मिलाता है, जो हमारे भीतर है. जब मन नहीं रहता अर्थात राग-द्वेष नहीं रहते, तो बुद्धि शुद्ध हो जाती है, अहंकार खो जाता है तब वह परमात्मा हमें अपनी आत्मा के दर्पण में नजर आता है. हमें अपने वास्तविक स्वरूप का अनुभव होता है. यह जगत एक नाटकशाला की तरह लगता है अथवा तो स्वप्न की तरह. जो जितनी जल्दी इस परमसुख का अनुभव कर लेता है वह उतनी ही शीघ्रता से समाज के लिये हितकारी बन सकता है, उसे तब सारे अपने ही लगते हैं. शुद्ध प्रेम का वास उसके हृदय में होता है ऐसा प्रेम जो कभी घटता बढ़ता नहीं, वह प्रेम भिक्षुक नहीं दाता होता है.

Tuesday, August 14, 2012

छल छल छलक रहा है घट


जुलाई २००३ 
भज गोविन्दम्, भज गोविन्दम्, भज गोविन्दम् मूढ़ मते..आदि गुरु शंकराचार्य ने कितना उचित कहा है कि जीव मूढ़ मति रखता है और उसी के सहारे सुख पाना चाहता है. ज्ञान, कृपा और ईश्वर का सानिध्य मिले बिना सुख नहीं मिल सकता और ये सब मति के शुद्ध होने पर ही मिलते हैं. उस परमात्मा ने इतना कुछ देकर हमें मालामाल कर दिया है, उसके कृतज्ञ होने के बजाय हमारी प्रार्थनाएँ मांगपत्र बन जाती हैं, जो कुछ उस प्रभु ने दिया है उसे सजाने संवारने में हम दाता को ही भूल जाते हैं. पर सदगुरु की अपार कृपा है कि वह हमें हर क्षण चेताते रहते हैं. निरंतर जगत की ओर ही नजर हो तो चिंता, तनाव, विकारों से मन भर जाता है, ईश्वर की ओर नजर हो तो भीतर भक्ति, सेवा और आनंद का उदय होता है. अहंकार का पेट कभी नहीं भरता, प्रेम का घट छलके बिना रहता नहीं है तभी तो भक्त उस अखिल ब्रह्मांड के स्वामी को एक फूल और जरा सा जल अर्पित करके भी तृप्ति का अनुभव कर लेते हैं. 

Monday, August 13, 2012

भीतर एक अग्नि जलती है


जुलाई २००३ 
साधना के पथ पर हमें सदा इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि अपनी उपलब्धियों पर अभिमान न हो, जो भी हमें मिला है वह कृपा का ही फल है. आज तक तो हम स्वयं पर निर्भर थे पर कहाँ कुछ कर पाए. हमारा सामर्थ्य उन्हीं का दिया हुआ है. कृपा से ही हमारा भ्रम टूट गया है, प्रकाश हो गया है. अब संसार कभी बांध नहीं पायेगा ऐसा दृढ़ विश्वास भी उन्हीं की कृपा से होता है. मन वैराग्य में दृढ़ होता है. मन में सात्विक यज्ञ चलता है, मन सदा शुद्ध चेतना में स्थित रहता है. जब हम दूसरों का चिंतन उनकी आलोचना के भाव से करते हैं, दूसरों के आचरण के बारे में स्वयं निर्णय लेने लगते हैं तो मन में तामसिक अग्नि पैदा होती है जो हमारे मन में क्रोध, मोह, मद आदि विकारों को जन्म देती है. सात्विक अग्नि के जलने से शांति, सरलता, सहजता आदि भाव उत्पन्न होते हैं साधक को तो हर क्षण इन्हीं की कमाई करनी है. 

Friday, August 10, 2012

मन जब मंदिर बन जाता है


जुलाई २००३ 
ईश्वर के सम्मुख हमें छोटे बालक की भांति आना है, जैसे माँ-पिता अपने बच्चे की भूल उसका पछतावा देखकर क्षमा कर देते हैं वैसे ही प्रभु हमारी भूलों को क्षमा करते हैं और तत्क्षण हमें उसे स्वीकार करना है, स्वयं को उत्तेजित, उतावला, कायर, भयभीत न बनाते हुए हम ईश्वर के साथ शांतिपूर्वक रह सकते हैं. हमारी भीतरी शांति हमें किसी भी परिस्थिति का सामना करने की क्षमता प्रदान करती है. भीतरी शांति ही बाहरी शांति की पूरक है. ईश्वर हमें अपने समान सृजित करते हैं, उनका स्वभाव पूर्ण शांतिमय तथा आनन्दमय है, वही आनंद तथा शांति हमारा भी मूल स्वभाव है, पर हम उसे भूले रहते हैं. सुख के लिये संसार की गुलामी करते हैं. वास्तव में तन साधना के लिये ही मिला है, यह आनंद का घर है, पर हम इसे खंडहर की तरह बना लेते हैं, जो घने जंगल में है जहाँ जाले लगे हैं, कीट-पतंगों ने जिस पर अपना अधिकार बना लिया है, जहाँ एक खंडित मूर्ति है पर कोई उसकी देखभाल नहीं करता, यदि हम इसे प्रभु का मंदिर बना कर रखें तो उसका राज्य हमें अपने भीतर मिल जाता है, हम उसके सखा बन जाते हैं, वह जो हमारे मित्र हैं पर बिछड़ गए हैं.

Thursday, August 9, 2012

काहे री नलिनी तू कुम्हलानी


जुलाई २००३ 

ईश्वर हमसे क्या चाहता है, इसका पता हमें शास्त्रों से चलता है, सदगुरु से इसका ज्ञान होता है, हमारी चेतना हमें बताती है. हमारा मन, हमारा तन भी बताता है. हम जिस क्षण ईश्वर के मार्ग पर चलते हैं, उसका कहा मानते हैं, उसकी इच्छा को सर्वोपरि मानते हैं, शांति और सुख हमारे भीतर जगते हैं, और जिस क्षण हम उससे दूर हो जाते हैं, असहज हो जाते हैं. सुबह से शाम तक कई बार हम असहज होते हैं, विरोध करते हैं तो अपने मूल स्वभाव को भुला बैठते हैं. हमारा मूल वही परमात्मा है, “काहे री नलिनी तू कुम्हलानी, तेरे ही नाल सरोवर पानी” हमारी आत्मा उसी से उपजी है और मन उसी आत्मा रूपी सागर में उठने वाली तरंग हो तो मन क्यों कुम्हलाये ? तन भी मन के द्वारा ही उत्पन्न  हुआ है. मन का ही प्रभाव उस पर पड़ता है तो तन क्यों रोगी हो. तन व मन तभी रोगी होते हैं जब हम अपने सहज स्वरूप को भुला दें तथा झूठे अहंकार को ही अपना सहज स्वरूप मान लें, यह अहं हमें कहीं नहीं पहुंचाता बल्कि उसी जगह पटखनी दिलाता है. जाल में फंसाता है. हमारी बुद्धि सीमित है, ज्ञान थोड़ा है, अहं ज्यादा है तो हम परमात्मा के बिना एक कदम भी कैसे चल सकते हैं. जब हम उसी का आश्रय लेते हैं, अपनी बुद्धि उसी में लगा देते हैं, अहंकार भी करते हैं तो इसी का कि वह सांवला सलोना हमारा सखा है. फिर वह धीरे से आकर पलकों पर छा जाता है. कभी मुस्कान फूटती है तो कभी रुलाई, उसके लिए रोना भी कितना सुखद है, उसकी याद मन को पीड़ा देती है पर अगले ही पल एक गहरी शांति में बदल जाती है. उसका हाथ थामे-थामे हम आगे बढ़ते जाते हैं.  

भीतर है संगीत सुहाना


जुलाई २००३ 
महात्मा बुद्ध ने कहा है, ‘जीवन की वीणा के तार को न अधिक ढीला होना चाहिए न ही अधिक कसा होना चाहिए, यथोचित कसे तार ही हमारे भीतर संगीत पैदा करते हैं. हमारा जीवन मध्यम मार्ग को अपना कर ही विकसित होता है’. विवेक और वीतरागता ही मानव को यह समझ देते हैं. जब हम बुद्धि से अपने चैतन्य स्वरूप को जान लेते हैं, यह जानते हैं कि परमात्मा व हममें गुणात्मक रूप से कोई भेद नहीं है, तो जीवन एक खेल प्रतीत होता है. जहाँ हम अपने निज स्वरूप को अनुभव रूप में जानने का लक्ष्य लिये उतरते हैं. बाधाएं तब स्वप्न की तरह आधारहीन प्रतीत होती हैं. जिसे हम बाहर खोजते रहे थे वह अनंत सम्भावनाओं का केन्द्र हमारे ही भीतर है, जब यह ज्ञान होता है तो अपनी पिछली मूर्खताओं पर हँसने का दिल होता है. हम कितने नादां होते हैं जब तुच्छ वस्तुओं के पीछे अपना कीमती समय गंवाते हैं, अपनी ऊर्जा को व्यर्थ ही स्वयं को या दूसरों को पीड़ित करने में खर्च कर देते हैं. हम करुणा और प्रेम के स्रोत भी बन सकते हैं, ज्ञान और आनंद के सागर भी जब परम सत्य से जुड़ते हैं.

Wednesday, August 8, 2012

प्रेम जो बन जाता है भक्ति


जुलाई २००३ 
भक्त के हृदय में पूर्ण विश्वास होता है कि ईश्वर उससे प्रेम करता है. परमात्मा के वचन उसे बदल देते हैं. वह अनंत है और उसकी महिमा अवर्णनीय है, वह इतना महान है फिर भी वह भक्त को इस योग्य समझता है कि वह उसकी कृपा पाए. वह उसका मित्र है उसकी आत्मा का रक्षक. वह उसकी हर श्वास में है, वही उसके तन में रक्त बन कर प्रवाहित हो रहा है. भक्त उसी से है, वह इतना प्रिय है कि उसका नाम ही जीवन को सुंदर बना रहा है. वह भक्त से दूर तो नहीं फिर भी उसकी आँखों में उसके लिये आँसुओं की झड़ी लग जाती है. कभी उसकी याद आती है तो मन कृतज्ञता से भर जाता है. कभी उसको याद करके अधर मुस्कुराने लगते हैं, वह उसे शक्ति और सामर्थ्य से भर जाता है. वह हर क्षण उसे आगे ले जाना चाहता है. उसने भक्त के हृदय में प्रेम का बीज बोया है, सभी के प्रति प्रेम ! जो अब विशाल वृक्ष बन गया है, उसकी दृष्टि में सभी कुछ उसी चैतन्य के कारण हो रहा है. पंछियों का कलरव हो अथवा मानवों की भाषा, वही तो हर जगह बोल रहा है.

Tuesday, August 7, 2012

जैसे जैसे वह मिलता है

 जुलाई २००३ 
जब ईश्वर का अनुभव हमें होता है तो वह हमारे विचारों, भावनाओं को पवित्र करना चाहता है. तब हम वही करना आरम्भ करते हैं जो उसे प्रिय हो, हम उसके साधन बन जाते हैं, वह हममें सामर्थ्य भरता है. परिपूर्ण करता है. सम्पूर्ण जीवन प्रदान करता है, जीवन्मुक्त करता है. विश्वास और श्रद्धा से ही आत्मा उजागर होती जाती है. हम उसकी महानताओं को प्रकाशित करने लगते हैं. हमारे माध्यम से वह स्वयं को ही प्रदर्शित करता है. जैसे-जैसे हम उसे समर्पित होते जाते हैं वही वह रह जाता है, हमारा झूठा अहं गिर जाता है. हमारा नया जन्म होता है. और ईश्वर का अनुभव होता है सदगुरु की कृपा से, वह एक ऐसा दिया है जो स्वयं जलकर औरों को प्रकाशित करता है. कठोर साधना के बाद जो उसने पाया है वह सहर्ष ही लुटा देता है. वह प्रेमवश हमारे अपराधों को सहता है. हमारी कमियों को दूर करने का रास्ता बताता है. उसका प्रेम अनंत है. उसे ईश्वर के निकट देखकर हमें भी ऐसी प्रेरणा होती है, वह हमें अपना सा बनाना चाहता है.

Sunday, August 5, 2012

हो प्रेय वही जो श्रेय भी हो


जुलाई २००३ 
प्रेय और श्रेय यह दोनों रास्ते जीवन में हर क्षण हमारे सम्मुख आते हैं, हमें हर पल चुनाव करना होता है. जो श्रेष्ठ है यदि उसका चुनाव किया तो हम साधक हैं पर प्रेय के पीछे गए तो अपने पद से नीचे गिर गए. ईश्वर हर क्षण हम पर नजर रखे है, वह हमारे चुनाव में दखलंदाजी नहीं करता, वह द्रष्टा है पर जैसे ही हम श्रेष्ठता का मार्ग चुनते हैं, वह हम पर एक स्नेह भरी मुस्कान छोड़ता है, उसका स्पर्श हम अपनी आत्मा में महसूस करते हैं. जब भी हम अच्छाई के रास्ते पर चलते हैं  आत्मा पुष्ट होती है और जब भी हम तुच्छता को चुनते हैं आत्मा संकुचित होती है. उस पर एक धब्बा लग जाता है. हमें तो इस चादर को ज्यों का त्यों प्रभु को सौंपना है. स्वच्छ, निर्मल और पवित्र और यह कितना सरल है, यह तब सरल हो जाता है जब हम ईश्वर से प्रेम करते हैं, उसके और अपने बीच अहं आड़े नहीं आने देते. उसने हमें अपने सा ही बनाया है. उसी की तरह हमें भी जगत में बाँटना ही बाँटना है. हम में भी अनंत सम्भावनाएं छुपी हैं, साधना उन्हीं को जागृत करती है.


Saturday, August 4, 2012

जीवन सरल बनाता ध्यान

जून २००३ 
हमारा मन अपने लक्ष्य से एक क्षण के लिये भी न भटके, जो लक्ष्य हमने तय किया है वह सारे कार्यों से प्राप्त होता है. ध्यान के एक घंटे के लिये शेष तेईस घंटे उसके विपरीत नहीं हों तभी ध्यान सधता है. मन, वचन, कार्य में एक रूपता होगी , तभी जीवन में वह झलकेगा जिसकी हम कामना करते हैं. ईश्वर कण-कण में है उसे देखने की आँख हमें भीतर विकसित करनी है. तब उसके मौन में भी ऐसा असर होगा, जो भीतर तक शीतलता भर दे. उसका नाम भी एक बार प्रेम से पुकारो तो मन ठहर जाता है. जीवन तब बहुत सरल लगता है, सहज रूप से हम जी पाते हैं, वरना तो मुखौटों से पीछा नहीं छूटता, पर उसके सामने कोई मुखौटा नहीं चलता. हम अपने वास्तविक स्वरूप को स्पष्ट देख पाते है, उसमें स्थित हो पाते हैं और प्रेम को उसके शुद्धतम रूप में अनुभव कर पाते हैं.  

ध्यान के अनुभव



जब मन शुद्ध हो, हृदय में प्रेम हो, शरणागति ले ली हो, कोई चाह शेष न रहे, ध्यान में मन टिक गया हो, और मन से भी परे चले जाएँ तब अनहद नाद भीतर सुनाई पड़ता है. घंटा ध्वनि, चिडियों का कलरव, कभी झींगुर की सी आवाज और कभी सोहम् की गूंज स्पष्ट सुनाई देती है. ‘अनहद की धुन प्यारी’ संतों ने गाया है और तब भीतर कैसा रस टपकता सा प्रतीत होता है. एक मधुरता सी छाने लगती है, मदहोशी सी, पर पूरा होश वहीं है. जगत में तो हम कई बार होश गंवा बैठते हैं, जब विकार हमें घेरते हैं, सत् के मार्ग से भटक जाते हैं. ध्यान में यदि होश कायम रहे तो जीवन में भी आने लगता है. और जीवन यदि होशपूर्वक जीया जाये तो ध्यान भी सफल होने लगता है.   

Friday, August 3, 2012

जो कर्ता है वही भोक्ता है


जून २००३ 
हम ईश्वर का आधार ग्रहण करते हैं तो वह हमें अपना निमित्त बनाते हैं, हम जो भी कार्य करते हैं उसमें कर्ता भाव नहीं होता, कोई अहं नहीं बचता, क्योंकि तब हम जो भी कर्म करते हैं वह वास्तव में हम नहीं कर रहे, इसका ज्ञान हो जाता है. अज्ञान ही हममें कर्ता भाव भरता है. सदगुरु हमें उस परमपिता से मिला देते हैं और तब तमस जीवन से लुप्त हो जाता है, एक अवर्णनीय शांति से अन्तःकरण भर जाता है, वह शांति, आनंद पहले से ही हमारे भीतर थे, उसे कहीं से लाना नहीं होता ज्ञान भी हम सभी के भीतर है पर जैसे आँख में पड़ा एक कण पर्वत को लुप्त कर देता है अज्ञान ने इसे ढका हुआ था. कृपा मिलते ही शीतल, मधुर, रसमय प्रकाश छा जाता है, गुणात्मक रूप से आत्मा व परमात्मा में कोई भेद नहीं, आत्मा अपने तन-मन का सुख-दुःख अनुभव करती है, पर जब हम सुख-दुःख की सीमा के पार जाकर उस परमात्मा का आश्रय लेते हैं तो हमें भी असीमता का अनुभव होता है, अनंत प्रेम, अनंत शक्ति, अनंत ज्ञान, जो वास्तव में हम हैं, का अनुभव होता है. उसकी उपस्थिति भीतर-बाहर सभी जगह दिखाई देती है, अनहद नाद हमारे रस को बढ़ाता है, परम का आश्रय हो तो वह हमारा अपनाआप होकर प्रकट हो जाता है.    

Thursday, August 2, 2012

विचार के पार ही अमृत है


जून २००३ 
विचार ही हमारा संसार है, स्वप्न में भी यही विचार प्रकट होते हैं. स्वप्न भी हमारा खुद का बनाया  संसार है. धर्म विचारों से मुक्ति का नाम है. हमारे मन में यदि पूर्ववत् विचार चलते रहे तो हम धार्मिक कहाँ हुए. विचार जब हमारे चाहने से उठे और चाहने से शांत हो जाये तभी हम साधना के पथ पर आगे बढ़ते हैं, विचार से मुक्ति, स्वप्न से मुक्ति और कल्पनाओं से मुक्ति ही साधना है. जिस प्रकार गंध हर जगह है पर सूंघने का काम नासिका ही करती है उसी प्रकार ईश्वर सर्वत्र है पर उसे अनुभव करने का सामर्थ्य जागृत होने के बाद ही होता है. मन जब खाली हो, संकल्प-विकल्प न चलते हों, चित्त निर्मल हो तो वह अमृत रस भीतर प्रकट होता है. इस जगत में सुख-दुःख के झूले में बहुत झूल लिये, माँगने की कला को पीछे छोड़कर नित्य उस परम आनंद में स्थित रहने की कला हमें सीखनी है.   


Wednesday, August 1, 2012

बन जाये वह मीत हमारा


जून २००३ 
वर्षा होती है तो सब ओर शीतलता छा जाती है और ग्रीष्म का ताप कहीं दूर चला जाता है.ऐसे ही जब हृदय में प्रभु प्रेम के बादल छा जाते हैं और भक्ति रूपी वर्षा होने लगती है, प्यास से तृषित मानस धरा पर जब बूंदें बरसती हैं, तो तीनों तापों से मुक्ति मिल जाती है. मन सौम्यभाव में स्थित हो जाता है, सुख-दुःख रूपी पक्षी भी शांत हो जाते हैं. यह जगत एक अनवरत चलने वाली चक्की की तरह है, रात और दिन जिसके दो पाट हैं. हम सभी एक न एक दिन इसमें पिस जाने वाले हैं, कुछ रहस्य ऐसे हैं, जिन पर पड़ा पर्दा ईश्वर उठाना नहीं चाहते, लेकिन वह इतनी कृपा अवश्य करते हैं कि उनका सान्निध्य एक ऐसा भाव जगाता है जिसके सम्मुख मृत्यु भी नहीं टिक पाती, तब जीवन और मरण दोनों एक से प्रतीत होते हैं, अभय प्रदान करती है भक्ति, तब इस देह से उतने ही कार्य मन लेता है जो आवश्यक हों, तब हृदय अनंत का घर बन जाता है, जब प्रेम के अतिरिक्त कोई भावना हमारे किसी कार्य, विचार या शब्द के पीछे नहीं होती, तब परमात्मा हमारा मीत बन जाता है.